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________________ 78 जैन धर्म : सार सन्देश संसारी जीव किसी न किसी इच्छा या मनोभाव से ही कोई कर्म करता है। उस कर्म के कर लिए जाने के बाद भी जिस इच्छा या मनोभाव से वह कर्म किया गया था उसका अन्त नहीं हो जाता। वह इच्छा या मनोभाव विशेष प्रकार की वासना का रूप लेकर अपना विशेष फल उत्पन्न करता है। एक जीवन में जो कर्म किये जाते हैं, उनका फल किसी न किसी आगामी जीवन में अवश्य भोगना पड़ता है। इस प्रकार अपने किये हुए पुण्य और पाप कर्मों की प्रकृति (स्वभाव) के अनुसार जीव को अनेक योनियों में जन्म लेकर सुख और दुःख भोगने पड़ते हैं। जिस प्रकार नीम की प्रकृति कड़वाहट है और गुड़ की प्रकृति मिठास, है, उसी प्रकार जीव के साथ बँधे कर्मों की प्रकृति के अनुसार जीव अनेक प्रकार के अच्छे या बुरे फलों को प्राप्त करता है। ये फल दो प्रकार के होते हैं: (1) जीव के स्वाभाविक गुणों का घात करनेवाले, अर्थात् उन्हें ढकने या बाधित करनेवाले और (2) जीव के स्वाभाविक गुणों का घात न कर, अर्थात् उन्हें बाधित न कर, उसके आगामी जीवन का स्वरूप निर्धारित करनेवाले। पहले को घातिया कर्म और दूसरे को अघातिया कर्म कहते हैं। प्रत्येक के चार-चार भेद हैं। इस प्रकार कर्मों की प्रकृति या स्वभाव के अनुसार उनके आठ भेद कहे जाते हैं। इन आठों का उल्लेख जैनधर्मामृत में इस प्रकार किया गया है: ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये आठ प्रकृतिबन्ध के (अपने स्वभाव के अनुसार बन्धन में डालनेवाले कर्मों के) भेद हैं, इन्हें कर्मों की मूल प्रकृतियाँ जानना चाहिए। इन आठ प्रकार के बन्धनकारी कर्मों में प्रथम चार घातिया कर्म के भेद हैं और शेष चार अघातिया कर्म के भेद हैं। इनके विशेष प्रकार के प्रभावों को संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है: घातिया कर्म के भेदः 1. ज्ञानावरणीय कर्मः जो कर्म जीव के यथार्थ ज्ञान को ढक लेते या प्रभावित करते हैं, उन्हें ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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