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________________ जीव, बन्धन और मोक्ष से उदासीन हो आत्मलीन हो जाता है और आत्मानन्द में मग्न हो संसार से मुक्त हो जाता है। अब हम जीव के बन्धन के कारण पर विचार करेंगे। कर्मः बन्धन का मूल कारण इस अध्याय के पहले खण्ड में हम देख चुके हैं कि जीव अपने मूल रूप में पूर्ण और अनन्त है। पर अपने अज्ञानवश वह जिस प्रकार के कर्मों को करता है, उनके भुगतान के लिए उसे उसी प्रकार का शरीर धारण करना पड़ता है और जिस प्रकार का वह शरीर धारण करता है, उसी प्रकार की सीमाओं और बाधाओं से उसके अनन्त गुण ढक जाते या प्रभावित हो जाते हैं। जिस प्रकार पूरी धरती को प्रकाशित करनेवाला सूर्य बादल या कुहासे के कारण दिखाई नहीं पड़ता, पर बादल या कुहासे के हटते ही अपने पूर्ण प्रकाश के साथ चमक उठता है, उसी प्रकार कर्मों से ढके हुए जीव के स्वाभाविक गुण कर्मों के नष्ट होते ही प्रकाशित हो उठते हैं। ____अब प्रश्न उठता है कि जीव के स्वरूप को ढक लेनेवाला या उसे प्रभावित करनेवाला शरीर क्यों और कैसे बनता है ? शरीर पुद्गलों (जड़ तत्त्वों) की मिलावट से बनता है। पुद्गल का अर्थ है जिसका संयोग और विभाग हो सके, अर्थात् जिन्हें जोड़कर एक बड़ा आकार दिया जा सके या जिन्हें तोड़कर छोटा भी किया जा सके। पुद्गल के सबसे छोटे भाग को परमाणु कहते हैं, जिसका और विभाग नहीं हो सकता। विशेष प्रकार के शरीर के लिए विशेष प्रकार के पुद्गलों की आवश्यकता होती है। जीव ही अपनी विशेष प्रकार की विकारयुक्त प्रवृत्तियों और वासनाओं के अनुरूप विशेष प्रकार के कर्म-पुद्गलों (कर्माणुओं) को अपनी ओर आकृष्ट करता है। इसलिए जीव स्वयं ही अपने शरीर का निमित्त कारण है और जिन पुद्गलों से शरीर बनता है, वे उस शरीर के उपादान कारण हैं । शरीर से केवल स्थूल शरीर का ही अर्थ नहीं लेना चाहिए, बल्कि इससे इन्द्रिय, मन और प्राण का भी बोध होता है। ये सभी जीव के स्वाभाविक गुणों को प्रभावित करते हैं । इस प्रकार कहा जा सकता है कि जीव की अपनी ही इच्छाएँ, प्रवृत्तियाँ, संस्कार और वासनाएँ उसके शरीर के निर्माण के मूल कारण हैं।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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