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जैन धर्म : सार सन्देश जीव दो प्रकार के होते हैं; (1) कर्म से लिप्त और (2) कर्म से रहित। पहले को बद्ध या संसारी और दूसरे को मुक्त या असंसारी कहते हैं । जो जीव कर्मों के बन्धन में बंधकर आवागमन के चक्र में फंसे हुए हैं, उन्हें बद्ध जीव कहते हैं और जो अपने सभी कर्मों को नष्टकर अपने शद्ध स्वभाव में स्थित हो मोक्ष की प्राप्ति कर चुके होते हैं, उन्हें मुक्त जीव कहते हैं।
जीव अपनी सहज शुद्ध अवस्था में सब प्रकार से परिपूर्ण होता है। वह अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य (शक्ति), अर्थात् अनन्त चतुष्टय से सम्पन्न होता है। मोक्ष की प्राप्ति कर वह सदा के लिए आवागमन से मुक्त हो जाता है। पर संसारी जीवों की शुद्धता न्यूनाधिक रूप में कर्म-मल से प्रभावित रहती है। इसलिए उनके ज्ञान-अज्ञान, सुख-दुःख, शक्ति-अशक्ति आदि में भिन्नता पायी जाती है। कर्मों से जकड़े संसारी जीवों को ज्ञान, सुख आदि की प्राप्ति अपने-आप सहज रूप से नहीं होती। कर्मों के आवरण से ढके होने के कारण उन्हें केवल इन्द्रियों के माध्यम से सीमित ज्ञान, सुख आदि की प्राप्ति होती है। इसलिए उनकी इन्द्रियों की संख्या के अनुसार उन्हें ऊँची या नीची श्रेणियों में बाँटा जाता है। ऊँची या नीची-किसी भी श्रेणी के जीव में चेतना का गुण सदा किसी न किसी अंश में अवश्य रहता है, भले ही जीव के अन्य सभी गुण लुप्त हो गये हों। इसलिए चेतना को जीव का लक्षण कहा गया है:
चेतनालक्षणो जीवः। अर्थ-चेतना जीव का लक्षण है। ___ संसार में अनगिनत जीव हैं। उनकी गिनती नहीं की जा सकती। चूँकि उन्हें जो भी ज्ञान होता है, वह उनकी इन्द्रियों के सहारे ही होता है। इसलिए इन्द्रियों की संख्या के अनुसार उन्हें पाँच भागों में बाँटा जाता है: (1) एक इन्द्रियवाले (2) दो इन्द्रियोंवाले (3) तीन इन्द्रियोंवाले (4) चार इन्द्रियोंवाले
और (5) पाँच इन्द्रियोंवाले। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पति, अर्थात पेड़-पौधों को सबसे कम विकसित जीव माना जाता है, क्योंकि इन्हें केवल एक ही स्पर्श का अनुभव करानेवाली