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________________ जीव, बन्धन और मोक्ष जीव और अजीव की भिन्नता को न समझने के कारण हम अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य और अपने मूल कर्तव्य को ठीक से नहीं समझ पाते । इस नासमझी या अज्ञान के कारण हम अपने सर्वाधिक आवश्यक कर्तव्य कों भुलाकर ऐसे कर्मों में उलझ जाते हैं जो हमें बन्धन में जकड़कर संसार के दुःख भरे आवागमन के चक्र में फँसा देते हैं । इसलिए जीव और अजीव की मौलिक भिन्नता का ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है। इस ज्ञान को ही जैन धर्म में ' भेद-विज्ञान' कहा जाता है। जीव और अजीव के एक दूसरे से भिन्न होने या न होने के विषय से सम्बन्धित अनेकों प्रश्नों पर गहराई से विचार करने को ही तत्त्व-विचार कहते हैं । अपना कल्याण चाहनेवाले को तत्त्व - विचार करने की प्रेरणा देते हुए नाथूराम डोंगरीय जैन कहते हैं: वस्तु के उस वास्तविक स्वरूप को तत्त्व कहते हैं जिसे जानकर हम अपना कल्याण कर सकें। हम क्या हैं ? हमारे दुःख का वास्तविक कारण क्या है ? क्यों हम संसार व इसके जन्म, मरण, शरीर, सुख, दुःखादि बन्धनों में फँसे हुए हैं, व किस भाँति इनसे छूट कर सुखी बन सकते हैं? स्थिर और आकुलता रहित सच्चा सुख व शान्ति हमें मिल सकती है या नहीं ? आदि बातों पर निष्पक्ष भाव से ठीक-ठीक विचार करना ही तत्त्व - विचार है। वास्तव में मूल तत्त्व दो हैं: 1. जीव ( आत्मा ) 2. अजीव (प्रकृति) । ज्ञान, दर्शन, आनन्द अथवा चेतनामय पदार्थ को आत्मा कहते हैं, जो प्रत्येक प्राणी में विद्यमान है । ...अजीव वह तत्त्व है जिसमें उपरोक्त चेतना या जानने देखने की शक्ति नहीं है । ... . संसारी जीव और अजीव के अन्तर्गत पुद्गल के परमाणु (कर्म) अनादि काल से सम्बन्धित हैं, और इसी कारण आत्मा संसार में जन्म मरणादि के दुखों को उठाती हुई नवीन शरीरों को धारण कर नाना योनियों में भटक रही है। ...संसारी आत्माएँ, जो कि अनादि से कर्म - मल से लिप्त हैं, आत्मध्यान आदि के द्वारा कर्म कलंक को धोकर व अपने सहज पवित्र स्वभाव को प्राप्त होकर पूर्ण सुखी बन जाती हैं । ' 73
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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