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जैन धर्म का स्वरूप
केवल शास्त्र का अध्ययन संसार - बन्धन से मुक्त करने का मार्ग नहीं । तोता राम-राम रटता है, परन्तु उसके मर्म से अनभिज्ञ (अनजान ) ही रहता है। इसी तरह बहुत शास्त्रों का बोध होने पर जिसने अपने हृदय को निर्मल नहीं बनाया उससे जगत् का कोई कल्याण नहीं हो सकता ।
कान स्वामी ने भी ऐसा ही विचार व्यक्त किया है । वे कहते हैं:
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यदि आत्मस्वभाव की पहिचान न करे तो वैसे जीव का हज़ारों शास्त्रों का अभ्यास भी व्यर्थ है- आत्मकल्याण का कारण नहीं है । जीव यदि मात्र शास्त्रज्ञान करने में ही लगा रहे, परन्तु शास्त्र की ओर के विकल्पों से परे—ऐसा जो चैतन्य आत्मस्वभाव है, उस ओर उन्मुख न हो तो उसके धर्म नहीं होता, सम्यग्ज्ञान नहीं होता । °
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धर्म के नाम पर कई लोग परम्परागत रूढ़ियों से बँध जाते हैं और अपने समाज, कुल या जाति की रीतियों को कभी परखने की कोशिश नहीं करते । बिना विचारे कि ये रीतियाँ धर्म के अनुकूल हैं या प्रतिकूल - वे उन्हें पकड़े रहते हैं। फिर कुछ लोगों के मन में ऐसी धारणा है कि केवल वे ही अपने ऊँचे कुल या जाति के कारण धर्म के अधिकारी हैं । जैन धर्म इन रूढ़िवादी विचारों को स्वीकार नहीं करता । पण्डित टोडरमल ने स्पष्ट कहा है:
वहाँ कितने ही जीव कुलप्रवृत्ति से अथवा देखा-देखी लोभादि के अभिप्राय से धर्म साधते हैं, उनके तो धर्मदृष्टि नहीं है । "
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जैन धर्म के अनुसार किसी कुल में जन्म लेने से कोई बड़ा या छोटा नहीं
• होता । मनुष्य अपने सम्यग्दर्शन, ज्ञान और आचरण से बड़ा होता है। इसकी
ओर संकेत करते हुए पं. हीरा लाल जैन कहते हैं:
नीच कुल में जन्मा हुआ चाण्डाल भी यदि सम्यग्दर्शन से युक्त है, तो श्रेष्ठ है - अतः पूज्य है । किन्तु उच्च कुल में जन्म लेकर भी जो मिथ्यात्व-युक्त हैं, वे श्रेष्ठ और आदरणीय नहीं हैं। 2