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________________ 66 . जैन धर्म: सार सन्देश नाथूराम डोंगरीय जैन भी कहते हैं: धर्म के नाम पर कभी-कभी कई लोकरूढ़ियाँ भी प्रचलित हो जाती हैं।...यदि किसी रूढ़ि के सेवन से हमारी धार्मिक श्रद्धा में दोष लगता हो या हमारे आचरण में शिथिलता पैदा होने की सम्भावना हो, अथवा जिसमें धर्म का लेश भी नहीं है और उसके सेवन से पाप बढ़ता हो, या हमारा जीवन कष्टमय होता हो तो उसे तुरन्त ही त्याग देना चाहिये। किसी विशेष प्रकार की वेश-भूषा धारण करने से भी कोई धर्मात्मा या मोक्ष-मार्गी नहीं बन जाता। गणेशप्रसाद वर्णी ने स्पष्ट घोषणा की है: भेष में मोक्ष नहीं, मोक्ष तो आत्मा का स्वतन्त्र परिणमन है।4 भगवती आराधना, मूल, ग्रन्थ में भी बगुले का दृष्टान्त देकर कहा गया है: यदि किसी मुनि का आचरण ऊपर से अच्छा या निर्दोष दीख पड़ता है परन्तु उसके अन्दर के विचार कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ आदि) से मलिन, अर्थात् गन्दे हैं, तो उसका यह बाह्याचरण, उपवास, अवमौदर्यादिक तप (अपने स्वाभाविक आहार से कम आहार लेने का तप) उसकी कुछ उन्नति नहीं करते, क्योंकि इन्द्रिय कषायरूप, अन्तरंग मलिन परिणामों से उसका अभ्यन्तर तप नष्ट हुआ होता है, जैसे बगुला ऊपर से स्वच्छ और ध्यान धारण करता हुआ दीखता है, परन्तु अन्तरंग में मत्स्य (मछली) मारने के गन्दे विचारों से युक्त ही होता है। सुधर्मोपदेशामृतसार में भी ऐसा ही विचार व्यक्त करते हुए आचार्य कुंथुसागर जी कहते हैं: जो केवल भेष धारणकर संसार को ठगते फिरते हैं ऐसे साधुओं में वैराग्य की सत्ता कभी नहीं हो सकती। बिना आन्तरिक निर्मलता के केवल बाहरी वेष धारण कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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