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. जैन धर्मः सार सन्देश जिन जीवों ने आत्मशुद्धि नहीं की उनका व्रत, उपवास, जप, तप, संयम आदि सभी निष्फल हैं; क्योंकि बाह्य क्रियायें पुद्गलकृत (बाह्य परमाणुओं द्वारा बनाये गये) विकार है।65 इसलिए वे दृढ़ता के साथ कहते हैं: मोक्षमार्ग मन्दिर में नहीं, मसजिद में नहीं, गिरजाघर में नहीं, पर्वत-पहाड़ . और तीर्थराज में नहीं; इसका उदय तो आत्मा में है।
नाथूराम डोंगरीय जैन भी इस सम्बन्ध में अपना विचार बड़े ही स्पष्ट और ज़ोरदार शब्दों में प्रस्तुत करते हुए कहते हैं:
धर्म, मंदिरों या मूर्तियों में, तीर्थक्षेत्रों या धर्मशास्त्रों में चिपकी रहनेवाली वस्तु नहीं है, जिसे हम वहाँ पहुँचकर पकड़ सकते या प्राप्त कर सकते हों; बल्कि धर्म तो अपने आत्मा के ही उत्तम और स्वाभाविक गुणों का नाम है। ...यह याद रखना चाहिए कि मंदिरों, मूर्तियों, तीर्थस्थानों अथवा पूजा, प्रार्थना आदि के नाम पर उन्मत्त होकर दूसरों पर टूट पड़ना और खून बहाना कभी भी धर्म नहीं हो सकता। जो लोग ऐसा करते हैं वे दुनियाँ को ही नहीं, बल्कि अपने-आपको भी धोखा देते हैं और धर्म के नाम पर पाप कर धर्म को कलंकित करते हैं। 67
जहाँ धर्म के नाम पर वैर-विरोध कर एक-दूसरे का खून बहाया जाता है या जहाँ बलि चढ़ाने के लिए प्राणियों की हत्या की जाती है, उसे धर्म नहीं, बल्कि घोर अनर्थ और अन्धविश्वास कहना चाहिए। गणेशप्रसाद वर्णी का कथन है:
जहाँ प्राणिघात को धर्म बताया जावे उनके दया का अभाव है, जहाँ दया का अभाव है वहाँ धर्म का अंश नहीं।68
धर्मग्रन्थों का अध्ययन और उनका पाठ भी आत्मनिर्मलता या आत्मस्वरूप की पहचान के बिना व्यर्थ ही है, जैसा कि गणेशप्रसाद वर्णी ने स्पष्ट कहा है: