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जैन धर्म का स्वरूप
भला जल कहाँ से आ सकता है? उसी प्रकार चित्त की शुद्धता के बिना मुक्ति कैसे हो सकती है?63
भाव पाहुड़ ग्रन्थ में भी कहा गया है:
जो व्यक्ति भावनारहित (शुद्ध भाव से रहित) है, उसका बाह्य अपरिग्रह (बाहरी वस्तुओं का त्याग), गिरि, कन्दराओं आदि में आवास तथा ध्यान, अध्ययन आदि सब निरर्थक है।64
गणेशप्रसाद वर्णी ने भी आन्तरिक शुद्धि या आत्मनिर्मलता पर जोर देते हुए बड़ी ही स्पष्टता के साथ बहिर्मुखी क्रियाओं की व्यर्थता दिखलायी है। वे कहते हैं:
अन्तरङ्ग की विशुद्धि से ही कर्मों का नाश सम्भव है, अन्यथा नहीं।
आत्मनिर्मलता के अभाव में यह आत्मा आज तक नाना संकटों का पात्र बनी रही है तथा बनेगी, अतः आवश्यकता इस बात की है कि आत्मीय भाव निर्मल बनाया जाये। ...आत्मनिर्मलता के लिए अन्य बाह्य कारणों के जुटाने का जो प्रयास है वह आकाशताड़न (आकाश को पीटने) के सदृश है।
आत्मनिर्मलता का सम्बन्ध भीतर से है, क्योंकि स्वयं आत्मा ही उसका मूल हेतु है। यदि ऐसा न हो तो किसी भी आत्मा का उद्धार नहीं हो सकता।
जो कुछ करना है आत्मनिर्मलता से करो।
जब तक वह (आत्मा में लगी) कलुषता (कालिमा) न जावेगी तब तक संसार में कहीं भी भ्रमण कर आइये, शान्ति का अंशमात्र लाभ न होगा, क्योंकि शान्ति को रोकनेवाली कलुषता तो भीतर ही बैठी है; क्षेत्र छोड़ने से क्या होगा! एक रोगी मनुष्य को साधारण घर से निकालकर एक दिव्य महल में ले जाया जाये तो क्या वह नीरोग हो जावेगा? अथवा काँच के नग में स्वर्ण की पच्चीकारी करा दी जाय तो क्या वह हीरा हो जावेगा?