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जैन धर्म : सार सन्देश मतभेद और दृष्टिकोण की भिन्नतामात्र से धर्म के नाम पर प्राचीन समय में भी लोगों ने साम्प्रदायिकता के नशे में मत्त होकर अपने से भिन्न सम्प्रदाय और विचार के निरपराध लोगों पर जो असंख्य और निर्मम अत्याचार किये हैं, एवं उन्हें जिन्दा जलाकर, कोल्हू में पेलकर, तलवार के घाट उतारकर, दीवारों में चिनवाकर और खाल खींच भुस भरवाकर अपने राक्षसी कृत्यों द्वारा धर्म के पवित्र नाम को कलंकित कर, इतिहास के पृष्ठों को रक्तरंजित किया है वह किसी भी विज्ञ पाठक से छिपा नहीं है।
इससे यह स्पष्ट है कि एक ही सिद्धान्त को स्वीकार करने पर भी हम अपने अन्धविश्वास और भ्रम के वश हो उसे भिन्न-भिन्न रूप में समझकर एक-दूसरे से वैर-विरोध करने लगते हैं। यदि हमारे धर्म के सिद्धान्त सही भी हों तब भी जब तक हम उन्हें सही रूप से नहीं समझते और उन पर सही रूप से अमल नहीं करते, तब तक हमारे वैर-विरोध की सम्भावना बनी ही रहेगी। हमारे वैर-विरोध का कारण हमारे मतों और विचारों की भिन्नता है और यह भिन्नता बहत कुछ हमारे ज्ञान, वातावरण, परम्परा, परिस्थितियों आदि पर निर्भर है। इसलिए सर्व-साधारण लोगों के बीच के मतभेद को पूरी तरह दूर कर पाना अत्यन्त ही कठिन है। इस सम्बन्ध में नाथूराम डोंगरीय जैन अपना विचार इस प्रकार व्यक्त करते हैं:
जैन धर्म कहता है कि अनादि काल से ही ससार में प्रत्येक प्राणी के विचार एक दूसरे से भिन्न रहे हैं, व रहेंगे; क्योंकि हर एक के विचार उसकी अपनी परिस्थिति, समझ एवं मानसिक इच्छाओं तथा
आवश्यकताओं के भिन्न होने से एक से हो जाने नामुमकिन से हैं। सबका ज्ञान और उसके साधन भी परिमित (सीमित) व भिन्न हैं। यह बात दूसरी है कि किसी विषय या बात के सम्बन्ध में एक से अधिक भी मनुष्य सहमत हो गये हों या हो जायें, किन्तु यह असम्भव है कि सम्पूर्ण मनुष्यों के विचार किसी भी समय एक से हो जायें।