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जैन धर्म का स्वरूप
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कुछ भी परवाह नहीं करता तब तक संसार में शान्ति का होना कठिन ही नहीं, असंभव है।
वास्तव में धर्म का मूल प्रयोजन जोड़ना है, तोड़ना नहीं। दूसरे शब्दों में, इसका प्रयोजन एकता लाना है, अलगाव पैदा करना नहीं। इस प्रकार इसका मूल उद्देश्य आत्मा को परमात्मा से एक करना है और समाज में भी व्यक्तियों के बीच एकता बनाये रखना है। पर अज्ञानवश आत्मा अनन्त काल से राग, द्वेष और मोह के प्रभाव में आकर तथा कोध्र, मान, माया लोभ आदि विकारों से दूषित और पथ-भ्रष्ट होकर अपने मूल उद्देश्य से विमुख हो गयी है। यह परमात्मा से एक होने की ओर ध्यान नहीं देती और समाज की एकता को भी भंग कर इसे विभिन्न वर्गों, जातियों और सम्प्रदायों में बाँट देती है तथा एक-दूसरे से लड़ने-झगड़ने में उलझ जाती है।
यदि आत्मा को अपने यथार्थ स्वरूप का अनुभव हो जाये और उसे यह भी समझ में आ जाये कि सबकी आत्मा एक जैसी ही है तो फिर आपस में वैर-विरोध रखने और लड़ाई-झगड़ा करने का कोई कारण या आधार ही नहीं रहेगा। जिस प्रकार सबकी आत्मा एक समान है उसी प्रकार संसार के सभी धर्म भी अपने-अपने ढंग से एक ही सत्य की ओर संकेत करते हैं। पर हम इतनी बुरी तरह भ्रम के शिकार हो गये हैं कि हमें न अपनी पहचान है और न किसी दूसरे की। हम न अपने धर्म के मर्म को समझते है और न किसी दूसरे के धर्म पर गहराई से विचार करने की कोशिश करते हैं। इसलिए अधिकांश लोगों के लिए धर्म एक सम्प्रदाय बनकर रह गया है और बहुत-से लोग जातीय विरोध और साम्प्रदायिक झगड़ों में पड़कर धर्म के नाम को बदनाम कर रहे हैं। इस स्थिति की ओर ध्यान दिलाते हुए नाथूराम डोंगरीय जैन कहते हैं:
प्रायः देखा जाता है कि एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय से, एक जाति दूसरी जाति से, एक पार्टी दूसरी पार्टी से, और यहाँ तक कि एक भाई दूसरे भाई से इसलिए लड़ता है कि उससे भिन्न सम्प्रदाय, जाति, पार्टी या भाई के विचार उसके विचारों से भिन्न हैं, उसके अनुकूल नहीं।