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________________ 56 जैन धर्म : सार सन्देश समझकर पक्षपातपूर्ण दृष्टि से उसका प्रचार करते फिरते हैं। वे भूल जाते हैं कि सभी मनुष्य समान रूप से धर्म के अधिकारी हैं और धर्म किसी की पैतृक सम्पत्ति नहीं है। इस बात की ओर संकेत करते हुए गणेशप्रसादजी वर्णी बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहते हैं: वास्तव में धर्म की प्रभावना करना (महिमा को उजागर करना, उसे बढ़ावा देना) चाहते हो तो जातीय पक्षपात को छोड़कर प्राणीमात्र का उपकार करो, क्योंकि धर्म किसी जाति का पैतृक विभव (धन, सम्पत्ति या ऐश्वर्य) नहीं अपितु प्राणीमात्र का स्वभाव धर्म है। अतः जिन्हें धर्म की प्रभावना करना इष्ट है तो उन्हें उचित है कि प्राणीमात्र के ऊपर दया करें, अहंबुद्धि ममबुद्धि को तिलाञ्जलि दें, तभी धर्म की प्रभावना हो सकती है। इस प्रकार जैन धर्म के अनुसार अपने सुख और शान्ति की चाह रखनेवाले व्यक्ति को अपने ही समान अन्य जीवों की सुख-शान्ति का ख़याल रखना आवश्यक है। इसलिए नाथूराम डोंगरीय जैन हमें अपनी संकीर्ण स्वार्थपूर्ण भावना को त्यागने और उदारतापूर्वक विश्वहित की कामना करते हुए विश्व-प्रेम की भावना को अपनाने का उपदेश देते हैं। वे कहते हैं: यदि तुम सचमुच ही सुखी बनना चाहते हो और दूसरों को सुखी बनाते हुए संसार में शान्ति स्थापित करना चाहते हो तो सर्व प्रथम विश्व-प्रेम के पवित्र सूत्र में बँध जाओ और अपने से भिन्न किसी भी . सम्प्रदाय, जाति, वर्ग या देश के मनुष्यों से घृणा व द्वेष मत करो तथा उनसे समानता व प्रेम का मित्रतापूर्ण व्यवहार करो, इतना ही नहीं; पशु . पक्षियों एवं कीड़े मकोड़ों को भी अपनी ही तरह जानदार समझते हुए बेरहमी से कभी मत सताओ, और उनके प्राणों की रक्षा का यथाशक्ति ध्यान रक्खो। जब तक एक मनुष्य या प्राणी दूसरे मनुष्यों और प्राणियों को हृदय से प्यार नहीं करता और उनके दुःख को अपने दु:ख के समान अनुभव नहीं करता; बल्कि उनको सताता रहता है व उनके सुख की
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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