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जैन धर्म का स्वरूप
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ऐसी स्थिति में हमें क्या करना चाहिए ? जैन धर्म की शिक्षा यह है कि सबसे पहले हमें स्वयं निष्पक्ष और उदार दृष्टि अपनाकर सत्य की खोज करनी चाहिए और इसकी प्राप्ति के लिए अथक प्रयत्न करना चाहिए। अपने समाज मैं जो धार्मिक विश्वास और विधि-विधान परम्परा से चले आ रहे हैं उन्हें आँख मूँदकर स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए, बल्कि उन्हें अच्छी तरह सत्य की कसौटी पर कसकर उनके उचित या अनुचित होने की पहचान कर उन्हें स्वीकार या अस्वीकार करना चाहिए । इसी बात की ओर संकेत करते हुए नाथूराम डोंगरीय जैन कहते हैं:
अपने विचारों को उदार, सहिष्णु और पक्षपातहीन बनाने के साथ ही प्रत्येक व्यक्ति के हित की दृष्टि से यह उसका प्रथम कर्तव्य है कि अपनी नीति सत्य को ग्रहण कर असत्य को त्यागने की बनावे। जो सत्य हो वही अपना है, न कि जो अपना माना हुआ है वही सत्य | ss
हुकमचन्द भारिल्ल ने भी पण्डित टोडरमल कृत मोक्षमार्ग प्रकाशक की प्रस्तावना में स्पष्ट कहा है कि किसी परम्परा को बिना स्वयं परीक्षा किये धर्म मान लेना उचित नहीं है । वे कहते हैं:
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कुल और परम्परा से जो तत्त्वज्ञान को स्वीकार लेते हैं वह भी सम्यक् (उचित) नहीं है। उनके (पण्डित टोडरमल के) अनुसार धर्म परम्परा नहीं, स्वपरीक्षित साधना है। 56
अन्धविश्वास और अन्धपरम्परा के सहारे हम सत्य की प्राप्ति नहीं कर सकते । सत्य की प्राप्ति के लिए हमें पूरी सावधानी और सूझ-बूझ के साथ किसी सच्चे मार्गदर्शक या गुरु की खोज करनी होगी जो हमें सही मार्ग दिखलाकर तथा सत्य का अनुभव कराकर मोक्ष की प्राप्ति करा सके। सच्चे गुरु की पहचान करने में सावधानी की आवश्यकता पर जोर देते हुए हुकमचन्द भारिल्ल बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहते हैं:
गुरु के स्वरूप को समझने में अत्यन्त सावधानी की आवश्यकता है, क्योंकि गुरु तो मुक्ति के साक्षात् मार्गदर्शक होते हैं । यदि उनके स्वरूप