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जैन धर्म : सार सन्देश
4. उत्तम शौच (निर्दोष पवित्र भावना)
मन को मलीन बनानेवाली जितनी दुर्भावनाएँ है उनमें लोभ सबसे प्रबल अनिष्टकारी है। इस लोभ कषाय को जीतकर मन को पवित्र बनाना शौच
धर्म है। _5. उत्तम सत्य
असत्य की प्रवृत्ति को रोककर सदैव यथार्थ हित-मित-प्रिय वचन बोलना
सत्य धर्म है। 6. उत्तम संयम (इन्द्रिय नियन्त्रण)
इन्द्रियों और मन को विषयों की ओर से मोड़कर सवृत्तियों में लगाना
संयम धर्म है। 7. उत्तम तप (कष्ट की परवाह न कर अपनी साधना में लगे रहना)
तप लौकिक दृष्टि से साधना में मन की एकाग्रता है। आध्यात्मिक दृष्टि से तप वह अग्नि है जिसमें मन के विकार जल जाते हैं और आत्मा का शुद्ध
चैतन्य स्वभाव जागृत हो उठता है। 8. उत्तम त्याग (अनासक्ति)
बिना किसी स्वार्थ भावना के दूसरों के हित व कल्याण के लिए अन्न, धन,
ज्ञान, विद्या आदि का दान देना त्याग धर्म है। 9. उत्तम आकिञ्चन्य (आत्मा से भिन्न पदार्थ को अपना न मानना)
घर-द्वार, धन-दौलत, बन्धु-बान्धव, शत्रु-मित्र सबसे ममत्व छोड़ना, ये मेरे नहीं हैं, यहाँ तक कि शरीर भी सदा मेरे साथ रहनेवाला नहीं है, ऐसा
अनासक्त भाव आकिञ्चन्य धर्म है। 10. उत्तम ब्रह्मचर्य
रागोत्पादक परिस्थितियों में भी मन को काम वेदना से विचलित न होने
देना और उसे आत्म-चिन्तन में लगाये रखना ब्रह्मचर्य धर्म है। उक्त सभी लक्षणों के पहले 'उत्तम' शब्द को विशेषणरूप में लगाने का उद्देश्य यह है कि धर्म के इन नियमों को केवल विशुद्ध धर्म-भावना से ही अपनाया जाये, न कि अपनी ख्याति (यश) अथवा अपनी पूजा-प्रतिष्ठा या आदर-सत्कार के लिए, जैसा कि चारित्रसार में स्पष्ट किया गया है: