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जैन धर्म का स्वरूप
उत्तम ग्रहणं ख्याति पूजादि निवृत्त्यर्थम् । 29
अर्थात् ख्याति और पूजादि की भावना की निवृत्ति के लिए 'उत्तम' विशेषण रूप में दिया गया है। दूसरे शब्दों में, ख्याति, पूजा आदि के अभिप्राय से धारण की गयी क्षमा या किसी अन्य धार्मिक नियम को उत्तम नहीं माना जा सकता ।
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ज्ञानार्णव 3° में भी धर्म के इन्हीं दश लक्षणों का उल्लेख पाया जाता है । जैन धर्म के इन लक्षणों को वही पूरी तरह अपना सकता है जो जैन धर्म में बताये गये सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र नामक 'रत्नत्रय' का दृढ़तापूर्वक पालन करता है। यही कारण है कि रत्नकरण्ड श्रावकाचार, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, तत्त्वानुशासन आदि ग्रन्थों में कहा गया है कि " गणधरादि आचार्य सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को धर्म कहते हैं ।' पुरुषार्थसिद्धयुपाय में भी कहा गया है:
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रत्नत्रयमिह हेतुर्निर्वाणस्यैव भवति । 32
अर्थात् इस लोक में रत्नत्रयरूप धर्म निर्वाण का ही कारण है। नाथूराम डोंगरीय जैन ने भी इसे 'सच्चा धर्म' बताते हुए कहा है:
इस सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चरित्र को ही सच्चा धर्म कहते हैं, जिसके प्रभाव से महान् पापिष्ठ और पतित आत्माएँ भी पावन और परमात्मा बन सकती हैं। 33
गणेशप्रसाद जी वर्णी भी कहते हैं:
वास्तव में रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र) ही मोक्ष का एक मार्ग है । 34
धर्म के सभी नियमों सहित रत्नत्रय की साधना आत्मा के स्वरूप को पहचानने या आत्मा को अपने-आपमें लीन करने के लिए ही की जाती है। आत्मस्वरूप का अनुभव प्राप्त हो जाने पर राग-द्वेष, मोह - क्षोभ आदि विकारों का उसमें प्रवेश नहीं हो पाता, आत्मा अपनी साम्यता, वीतरागता या