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________________ जैन धर्म का स्वरूप लोभ का सम्बन्ध ममत्व से है। राजवार्तिक में लोभ का अर्थ इस प्रकार बताया गया है: धन आदि की तीव्र आकांक्षा (इच्छा) ही लोभ है ।25 धवला पुस्तक में इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है: बाह्यार्थेषु ममेदं बुद्धिर्लोभः । अर्थात् बाह्य पदार्थों में जो 'यह मेरा है' इस प्रकार अनुरागरूप बुद्धि होती है वही लोभ है। ___ कुछ लोग धन के लोभ में पड़कर लोगों के सामने धार्मिक होने का दिखावा करते और उन्हें धर्म का उपदेश देते फिरते हैं। ऐसे लोगों से सावधान रहने के लिए ही वर्णी जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है: धर्म वही कर सकता है जो निर्लोभ हो।” जैन ग्रन्थों में बार-बार धर्म को दश लक्षणोंवाला बताते हुए उसके दश लक्षणों का उल्लेख किया गया है। उदाहरण के लिए, तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में 28 धर्म के दश लक्षणों के नाम इस प्रकार गिनाये गये हैं: 1. उत्तम क्षमा क्रोध उत्पादक गाली-गलौज, मारपीट, अपमान आदि परिस्थितियों में भी मन को कलुषित न होने देना क्षमा धर्म है। 2. उत्तम मार्दव (अभिमान के बदले मृदुता या कोमलता ग्रहण करना) कुल, जाति, रूप, ज्ञान, तप, वैभव, प्रभुत्व एवं शील आदि सम्बन्धी अभिमान करना मद कहलाता है। इस मद या मान कषाय को जीतकर मन में सदैव मृदुता-भाव रखना मादर्व है। 3. उत्तम आर्जव (सरलता) मन में एक बात सोचना, वचन से कुछ और कहना तथा शरीर से कुछ और ही करना, यह कुटिलता कहलाती है। इस माया कषाय को जीतकर मन वचन और काया की क्रिया में एकरूपता रखना आर्जव है।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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