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जैन धर्म: सार सन्देश
इससे यह संकेत मिलता है कि अहिंसा में धर्म के अनेक प्रमुख नियम अपने-आप समाये हुए हैं।
जीवों की रक्षा करना अहिंसा का स्वाभाविक अंग है। इसलिए कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा गया है:
जीवाणं रक्खणं धम्मोग
अर्थात् जीवों की रक्षा करने को धर्म कहते हैं।
यही बात दर्शनपाहुड टीका 22 में भी कही गयी है। इस सम्बन्ध में गणेशप्रसाद जी वर्णी ने बड़ी ही स्पष्टता के साथ कहा है: जीवों की रक्षा करना ही धर्म है। जहाँ जीवघात में धर्म माना जावे वहाँ .. जितनी भी बाह्य क्रिया है, सब विफल है। धर्म वह पदार्थ है जिसके द्वारा यह प्राणी संसार बन्धन से मुक्त हो जाता है। जहाँ प्राणिघात को धर्म बताया जावे उनके दया का अभाव है; जहाँ दया का अभाव है वहाँ धर्म का अंश नहीं, जहाँ धर्म नहीं वहाँ संसार से मुक्ति नहीं।
जैन धर्म के अनुसार धर्म के पालन के लिए विनय (नम्रता) और निर्लेपता को अपनाना भी आवश्यक है, क्योंकि इनका सम्बन्ध मान (अहंकार) और ममत्व (मेरेपन) के त्याग से है। जब तक जीव अहंकार और ममत्व का त्याग नहीं करता तब तक वह सच्चे अर्थ में धर्मात्मा नहीं बन सकता। विनय की व्याख्या करते हुए और उसकी आवश्यकता पर जोर देते हुए गणेशप्रसाद जी वर्णी कहते हैं:
विनय का अर्थ नम्रता या कोमलता है। कोमलता में अनेक गुण वृद्धि पाते हैं। यदि कठोर जमीन में बीज डाला जाये तो व्यर्थ चला जाता है। पानी की बारिश में जो ज़मीन कोमल हो जाती है उसी में बीज जमता है। ...जिसने अपने हृदय में विनय धारण नहीं किया वह धर्म का अधिकारी कैसे हो सकता है ? ...आप किसी को हाथ जोड़कर या सिर झुकाकर उसका उपकार नहीं करते बल्कि अपने हृदय से मानरूपी शत्रु को हटाकर अपने-आपका उपकार करते हैं।24