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________________ जैन धर्म का स्वरूप ___ जैन धर्म के जिन चार लक्षणों के विषय में ऊपर विचार किया गया है वे जैन धर्म के सामान्य और व्यापक लक्षण हैं जो सिद्धान्त रूप में धर्म की पहचान और उसका प्रयोजन बताते हैं। पर दिन-प्रतिदिन के व्यावहारिक जीवन में धर्म की पहचान करने के लिए जैनाचार्यों ने धर्म के कुछ विशेष लक्षणों की ओर भी हमारा ध्यान दिलाया है जिनकी जानकारी प्राप्त कर लेना आवश्यक है। जैन धर्म के विशेष लक्षण धर्म के विशेष लक्षणों में अहिंसा को प्रथम स्थान दिया जाता है। जैनाचार्यों ने अहिंसा को धर्म का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण लक्षण माना है। कहा जा चुका है कि दया ही धर्म का मूल है। स्पष्ट है कि जीवों की हिंसा करना दया का ठीक विरोधी है। इसलिए अहिंसा को परम धर्म कहा जाता है और इसे धर्म का सार माना जाता है। जैन धर्म में अहिंसा को बहुत ही व्यापक अर्थ में लिया जाता है और यह माना जाता है कि इसका पालन किये बिना धर्म के किसी भी नियम का ठीक-ठीक पालन नहीं हो सकता। हम इस पुस्तक के एक अलग अध्याय में विस्तार के साथ अहिंसा के प्रमुख पहलुओं पर विचार करेंगे। __ जैन धर्म में अहिंसा की प्रमुखता स्थापित करते हुए राजवार्तिक में स्पष्ट कहा गया है: अहिंसादि लक्षणो धर्मः।18 अर्थात् धर्म अहिंसा आदि लक्षणवाला है। द्रव्यसंग्रह टीका में भी इसकी पुष्टि की गयी है। अहिंसा के व्यापक अर्थ को दिखलाते हुए सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है: जिनेन्द्रदेव ने जो यह अहिंसा लक्षणवाला धर्म कहा है-सत्य उसका आधार है, विनय उसकी जड़ है, क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य से वह रक्षित है, उपशम (शान्ति) उसकी प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है और निष्परिग्रहता (अनावश्यक वस्तुओं का संचय न करना) उसका अवलम्बन है।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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