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जैन धर्म : सार सन्देश ___ इस तथ्य को बड़ी ही स्पष्टता के साथ व्यक्त करते हुए नाथूराम डोंगरीय जैन कहते हैं:
वास्तविक दृष्टि से संसार का प्रत्येक प्राणी परमात्मस्वरूप है। परमात्मा उसे कहते हैं, जो राग, द्वेष रहित, सर्वज्ञ, पूर्ण सुखी, अनन्त शक्तिसम्पन्न, जन्म-मरण से रहित, निर्दोष और निष्कलंक हो। ऐसे परमात्मा बनने की शक्ति सम्पूर्ण संसारी भव्य (मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता रखनेवाली) आत्माओं में विद्यमान है, और वही आत्मा का असली स्वरूप है। भेद यह है कि संसारी आत्माएँ राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोधादि विकारों और पाप वासनाओं में फँसी हुई हैं, व जन्म मरणादि के कष्टों को भोग रही हैं; किन्तु परमात्मा इन सब झंझटों से मुक्त है। सांसारिक आत्माएँ चूँकि नाना प्रकार के पाप-पुण्यादि कर्मों को करती रहती हैं, अतः उनके फलस्वरूप उनकी अवस्थाएँ भी विचित्र होती रहती हैं; किन्तु यह निश्चित है कि प्रत्येक आत्मा का स्वभाव परमानन्दमय है। इसीलिए प्रत्येक आत्मा सुख चाहती और दुःखों से डरती है, एवं अपने को सुखी बनाने के लिए ही वह भ्रमवश नाना प्रकार के भले-बुरे कार्यों को करती रहती है; किन्तु सुख पाने का सच्चा मार्ग मालूम न होने से वह वास्तविक सुख तो पा ही नहीं पाती; वरन् संसार में भी शान्ति से नहीं जीने पाती।
जिस आत्मा में अनन्त सुख का भण्डार भरा पड़ा है, जो स्वयं अपना ही स्वरूप है और जिसके अनुभव द्वारा जीव सदा के लिए सभी दुःखों से मुक्त और सच्चे अर्थ में पूर्ण सुखी बन सकता है, उसकी ओर वह ध्यान नहीं देता और उसे अपना लक्ष्य नहीं बनाता। उलटे, अपने से भिन्न वस्तुओं और व्यक्तियों को जो न अपने हैं और न कभी अपने बन ही सकते हैं, उन्हें अपना बनाने और उनसे सुख प्राप्त करने की व्यर्थ कोशिश में वह जीवन बरबाद कर डालता है। इस बात को अच्छी तरह समझकर हमें अपनी बहिर्मुखी प्रवृत्ति को अन्तर्मुखी बनाने की पूरी कोशिश करनी चाहिए और आत्मज्ञान या आत्मानुभव प्राप्त करने के प्रयत्न में शीघ्रातिशीघ्र लग जाना चाहिए।