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जैन धर्म का स्वरूप
चूँकि सुख और शान्ति आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं, इसलिए सुख-शान्ति की प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि आत्मा अपने को अपने-आपमें लीन कर अपने असली स्वरूप को पहचाने। पर भ्रम में पड़ा हुआ जीव अपने अन्दर सुख की तलाश न कर उसे बाहरी वस्तुओं और व्यक्तियों में ढूँढ़ने की कोशिश करता है । वह अधिक से अधिक ज़मीन-जायदाद, धन-दौलत और संसार की अनेक प्रकार की भोग-विलास की वस्तुओं पर अपना अधिकार जमाना चाहता है और इसके लिए वह अपनी एड़ी-चोटी का पसीना एक कर देता है। इसी प्रकार अपने कुटुम्ब-परिवार और सम्बन्धियों को सुखी बनाने के लिए वह पवित्र से पवित्र नैतिक नियमों का भी उल्लंघन कर देता है । अपने भ्रमवश वह भूल जाता है कि इन पदार्थों और व्यक्तियों से उसे कभी भी सच्चा या स्थायी सुख नहीं मिल सकता और न इनमें से कोई भी उसका साथ ही दे सकता है । सबको यहीं छोड़कर उसे एक दिन ख़ाली हाथ ही जाना पड़ता है । औरों की तो बात दूर रहे, अपने कुटुम्ब - परिवार वाले भी केवल अपने स्वार्थ के ही संगी होते हैं | अपना स्वार्थ पूरा होते ही वे अपना मुँह मोड़ लेते हैं ।
आत्मा से भिन्न शरीर को तथा सांसारिक वस्तुओं और व्यक्तियों को अपना समझने की भूल में पड़े व्यक्ति को सुन्दर, बलवान्, धनवान, कुलीन, प्रतिष्ठित आदि होने का अभिमान होता है और यह अभिमान उसके सर्वनाश का कारण बन जाता है।
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इस सम्बन्ध में गणेशप्रसाद जी वर्णी के कुछ चुने हुए पद अर्थसहित नीचे दिये जाते हैं जिनमें जीव को अपना परम आनन्दमय परमात्मरूप प्राप्त करने के लिए परायी वस्तुओं से ध्यान को हटाकर उसे आत्मस्वरूप में लीन करने का उपदेश ज़ोरदार शब्दों में दिया गया है 2:
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इस भव वन के मध्य में जिन बिन जाने जीव । भ्रमण यातना सहनकर पाते दुःख अतीव ॥
'जिन' (राग-द्वेष आदि दोषों पर विजय प्राप्त कर चुके सच्चे मार्गदर्शक) को जाने बिना जीव इस संसाररूपी वन के बीच आवागमन का कष्ट सहते हुए अपार दुःख उठाते हैं ।