SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का स्वरूप सभी सुख की खोज में सांसारिक विकारों से ग्रस्त होने के कारण आत्मा अपने परमसुखमय स्वरूप को खो चुकी है और संसार के आवागमन के चक्र में पड़कर दुःख भोग रही है। पर दुःखी रहना कोई भी नहीं चाहता। संसार के सभी प्राणी सुख चाहते हैं और दुःख से डरते हैं। इसका कारण यह है कि सभी प्राणी मूलत: चेतन और सुख रूप हैं। इसलिए सभी में सुख को अनुभव करने की इच्छा सदा बनी रहती है। वे अपने स्वभाव-वश अधिक से अधिक सुख अनभव करना चाहते हैं। इसप्रकार अपने सहज स्वभाव के कारण ही उन्हें सुख प्रिय लगता है और दुःख अप्रिय मालूम पड़ता है। परमात्मा अनन्त सुख का भण्डार है। यद्यपि सभी जीव परमात्मा के ही अव्यक्त रूप हैं, फिर भी परमात्मा और जीव में अन्तर यह है कि परमात्मा परम चेतन और परम आनन्दमय है, वह सभी सद्गुणों से भरपूर और सभी विकारों या अवगुणों से रहित है तथा अपने-आप में पूर्ण है, पर जीव अनेक प्रकार से अपूर्ण हैं। उनकी चेतना मन्द पड़ गयी है जिससे उन्हें अपने भले-बुरे की ठीक-ठीक सूझ भी नहीं रह गयी है। उचित ज्ञान के न होने से वे भ्रम में पड़े रहते हैं और ऐसे कर्म करते हैं जिनके फलस्वरूप उन्हें सुख के बदले दुःख भोगना पड़ता है। इस प्रकार वे जन्म-मरण के चक्र में पड़कर सदा दुःख के शिकार बने रहते हैं। जब तक वे किसी सच्चे ज्ञानदाता और सच्चे मार्गदर्शक के सम्पर्क में नहीं आते, वे संसार के इस दुःखमय जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा नहीं पा सकते।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy