________________
346
जैन धर्म : सार सन्देश इसी प्रकार ज्ञानार्णव में भी कहा गया है:
यः सिद्धात्मा पर: सोऽहं योऽहं स परमेश्वरः ॥ जो सिद्धात्मा (पूर्णता प्राप्त आत्मा) का स्वरूप है वही परमात्मरूप मैं हूँ और जो मैं हूँ वही परमात्मा है।
आत्मा और परमात्मा के अभेद या एकरूप होने का यह ज्ञान बुद्धि और वचन का विषय नहीं, बल्कि साक्षात् स्वानुभव (अपने निजी अनुभव) का विषय है। इसे बतलाते हुए जैनधर्मामृत में कहा गया है:
आत्मस्वरूप को दूसरों से सुनते हुए तथा दूसरों को अपने मुख से बोलकर समझाते हुए भी जब तक जीव को शरीर से आत्मा के भिन्न होने का अनुभव नहीं होता, तब तक वह मोक्ष का पात्र नहीं बनता।52
इस अनुभव की प्राप्ति के लिए घर छोड़कर वन जाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह तो एक आन्तरिक अनुभव है जो कहीं बाहर से नहीं, बल्कि अपने अन्तर से ही प्राप्त होता है। इसे सपष्ट करते हुए जैनधर्मामृत में कहा गया है:
आत्मस्वरूप के साक्षात्कार से रहित अज्ञानी जीवों को 'यह ग्राम' है, 'यह अरण्य (वन)' है, इन दो प्रकार के निवासों की कल्पना होती है। किन्तु आत्मा का साक्षात्कार करनेवाले ज्ञानीजनों का तो रागादि-रहित निश्चल आत्मा ही निवास स्थान है।
इसप्रकार सच्चे साधकों की समस्त साधना अन्तर्मुखी होती है। वे किसी सच्चे मार्गदर्शक गुरु के उपदेशानुसार सम्यक् दर्शन (श्रद्धा), सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र को ग्रहण कर स्मरण, चिन्तन और ध्यान के अन्तर्मुखी अभ्यास के सहारे अपने समस्त कर्मों को नष्ट कर देते हैं। इसके फलस्वरूप वे आत्मा से परमात्मा बन जाते हैं, जो मनुष्य-जीवन का वास्तविक लक्ष्य है।