________________
आत्मा से परमात्मा
यह आत्मा स्वयं साक्षात् गुणरूपी रत्नों का भरा हुआ समुद्र है तथा यही आत्मा सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है, सबका हितरूप है, समस्त पदार्थों में व्याप्त है, परमेष्ठी (परमपद में स्थित ) है और निरंजन है, अर्थात् जिसमें किसी प्रकार की कालिमा नहीं है।
यह आत्मा स्वयं तो ज्योतिर्मय (प्रकाशमय) है, पर यह तीन प्रकार के शरीरों (स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर) से ढकी हुई है। जब तक इसे अपने-आपका ज्ञान नहीं हो जाता तब तक भला यह बन्धन से कैसे छूट सकती है ?
जब यह आत्मा विशुद्ध ध्यान के बल से कर्मरूपी ईंधनों को भस्म कर देती है तब यह स्वयं ही साक्षात्परमात्मा हो जाती है, यह निश्चय है ।
इस आत्मा के गुणों का समस्त समूह ध्यान से ही प्रकट होता है तथा ध्यान से ही अनादि काल की संचित ( इकट्ठी) की हुई कर्म-सन्तति (कर्मों की परम्परा) नष्ट होती है ।
मोहरूपी कीचड़ के नष्ट होने पर तथा भ्रम में डालनेवाले राग आदि दोषों के पूरी तरह शान्त हो जाने पर योगीजन (अभ्यासी) अपने में ही परमात्मा के स्वरूप को देखते हैं, अर्थात् अनुभव करते हैं ।
अज्ञान से भ्रष्ट चित्तवाला जीव अपने वास्तविक स्वरूप से दूर हो जाता है, पर सम्यग्ज्ञान ( यथार्थ ज्ञान) से सुवासित होने पर वही अपने अन्तर में प्रभु परमात्मा को देखता है । 49
345
आत्मा के यथार्थ स्वरूप का अनुभव हो जाने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है। इस एकता के ज्ञान से द्वैतभाव बिल्कुल मिट जाता है: आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं रह जाता ।
इसे स्पष्ट करते हुए जैनधर्मामृत में कहा गया है:
यः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः ।
जो परमात्मा है, वही मैं हूँ, तथा जो स्वानुभवगम्य मैं हूँ, वही परमात्मा है। 50