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जैन धर्म: सार सन्देश
प्रभा मात्र से प्रफुल्लित हो जाते हैं एवं रात्रि का भयानक अन्धकार देखते-देखते विलीन हो जाता है, उसी प्रकार भव्य पुरुषों के भक्तिभाव से पूर्ण हृदय कमल भगवान् के दर्शन तो दूर, नाम मात्र से प्रफुल्लित हो जाते हैं। इससे उन्हें इस समय जो अनुपम आनन्द, अपूर्व शान्ति एवं संतोष प्राप्त होता है वह कथन नहीं, अनुभव करने की चीज़ है।46
इसप्रकार सच्ची भक्ति द्वारा भक्त भगवान् बन जाता है, आत्मा परमात्मा बन जाती है। इसे जैनधर्मामृत में एक उपमा द्वारा इस प्रकार समझाया गया है:
यह आत्मा अपने से भिन्न अर्हन्त, सिद्धरूप परमात्मा की उपासना (भक्ति) करके उन्हीं के समान परमात्मा हो जाती है। जैसे दीपक से भिन्न भी बत्ती दीपक की उपासना कर दीपकरूप हो जाती है।
यहाँ इस बात को अच्छी तरह याद रखना आवश्यक है कि भक्त की भक्ति सच्ची और गहरी होनी चाहिए , केवल ऊपरी और दिखावटी नहीं। इसे स्पष्ट करते हुए नाथूराम डोंगरीय जैन कहते हैं: जिस प्रकार समुद्र के अतल तल (गर्भ) में भरे हुए बहुमूल्य रत्न ऊपर डुबकियाँ लगाने या उतरानेवाले व्यक्तियों के हाथ नहीं लगते उसी प्रकार भावपूर्वक तन्मय होकर भगवद्भक्ति में मग्न हुए बिना और वीतरागता का अध्ययन किये बिना उस चीज़ (परमात्म तत्त्व) की प्राप्ति नहीं हो सकती48
यहाँ यह भली-भाँति याद रखना चाहिए कि आत्मा के परमात्मा बनने का अर्थ आत्मा का अपने से कोई भिन्न पदार्थ बन जाना नहीं है, बल्कि उसके अपने ही वास्तविक स्वरूप की पहचान कर लेनी है। जबतक आत्मा कर्मों से उत्पन्न स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर से ढकी रहती है तब तक उसका वास्तविक स्वरूप छिपा रहता है। पर जब ध्यान के बल से कर्म नष्ट हो जाते हैं
और तीनों शरीर के परदे हट जाते हैं तब परम प्रकाशमय आत्मा का वास्तविक स्वरूप अपने-आप प्रकट हो जाता है और वह परमात्मा बन जाती है। इस तथ्य को ज्ञानार्णव में इस प्रकार समझाया गया है: