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आत्मा से परमात्मा
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मुक्ति के मार्ग से परिचित नहीं है, वह दूसरों को मुक्ति का मार्ग कैसे दिखला सकता है ?
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अभ्यास करने के लिए अभ्यासी को एकान्त स्थान में बैठकर, अपनी इन्द्रियों को बाहरी विषयों से हटाकर, चित्त को एकाग्र कर तथा आलस, निद्रा और असावधानी (लापरवाही ) को दूर कर अपने अन्तर में ध्यान लगाना चाहिए ।
जन्म - जमान्तर से जो ध्यान बाहरी विषयों में लगा रहा है उसे धीरे-धीरे ही अन्तर में लगाया जा सकता है । इसलिए इसमें जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। जैसे-जैसे ध्यान अन्तर में लगने लगता है, वैसे-वैसे आन्तरिक आनन्द मिलने लगता है और सांसारिक विषयों का सुख फीका लगने लगता है । तब आत्मनुभव या आत्मसाक्षात्कार ही अभ्यासी के जीवन का लक्ष्य बन जाता है । वह संसार के लुभावने विषयों से आकृष्ट या प्रभावित नहीं होता । वह इस संसार में अनासक्त भाव से व्यवहार करता है और एकमात्र परमात्मभाव की प्राप्ति की ही अभिलाषा रखता है। इन बातों को जैनधर्मामृत में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है:
जो पुरुष गुरु के उपदेश से, अभ्यास से और संवित्ति अर्थात् स्वानुभव से स्व और पर के अन्तर - भेद को जानता है वही पुरुष निरन्तर मोक्षसुख का अनुभव करता है । 43
जैन धर्म के अनुसार सच्चे गुरु "जिन, शुद्ध, बुद्ध, निरामय ( राग-द्वेष आदि रोगों से मुक्त ) सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और केवलज्ञान के धारक अरहन्त परमेष्ठी कहलाते हैं ।
उस अंरहन्त अवस्था में रहते हुए वे सर्व देशों में विहार कर और भव्य जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देकर अन्त में ... सर्व कर्म से रहित होकर वे अरहन्त परमेष्ठी निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं । "44
अभ्यास और आत्मानुभव को जैनधर्मामृत में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है:
चित्त - विक्षेप से रहित होकर और एकान्त स्थान में बैठकर आत्मा के वीतराग शुद्ध स्वरूप की भावना करने को अभ्यास कहते हैं।