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________________ 340 जैन धर्म: सार सन्देश सकल परमात्मा कहते हैं। तथा जिन्होंने सर्व-कर्म बन्धनों से छूटकर अविनाशी परमधाम प्राप्त कर लिया है, ऐसे अनन्त गुणों के स्वामी सिद्धपरमेष्ठी को निष्कल परमात्मा कहते हैं। सकल परमात्मा को साकार या सगुण परमात्मा और निष्कल परमात्मा को निराकार या निर्गुण परमात्मा के नाम से सम्बोधित किया जाता है। 40 ज्ञानार्णव में भी इन्हीं दोनों भेदों का उल्लेख करते हुए कहा गया है: साकारं निर्गताकारं अर्थ-परमात्मा कैसा है, उसका स्वरूप कहते हैं: प्रथम तौ साकार है (आकार सहित है अर्थात् शरीराकार मूर्तीक है) तथा निर्गताकार कहिये निराकार भी है। इन्हीं दोनों भेदों को बतलाते हुए छहढाला में कहा गया है कि परमात्मा अपने दोनों ही अवस्थाओं में एक समान सबको जानने और देखनेवाला है: परमात्मा के दो प्रकार हैं-सकल और निकल। (1) श्री अरिहन्तपरमात्मा वे सकल (शरीरसहित) परमात्मा हैं, (2) सिद्ध परमात्मा निकल परमात्मा हैं। वे दोनों सर्वज्ञ होने से लोक और अलोक सहित सर्व पदार्थों का त्रिकालवर्ती सम्पूर्ण स्वरूप एक समय में युगपत् (एकसाथ) जानने-देखनेवाले, सबके ज्ञाता-द्रष्टा हैं।42. इसप्रकार साकार परमात्मा के ध्यान के सहारे साधक निराकार परमात्मा के ध्यान में लीन होकर परमात्मा बन जाता है। परमात्मा की प्राप्ति अथवा अविनाशी मोक्षसुख की प्राप्ति के लिए तीन बातों की आवश्यकता होती है: (1) गुरु से दीक्षा प्राप्त करना (2) उसके अनुसार नियमित रूप से अभ्यास करना और (3) इनके फलस्वरूप बाह्य पदार्थों से भिन्न आत्मस्वरूप का अनुभव प्राप्त करना। पहले कहा जा चुका है कि गुरु को जीवन्मुक्त होना चाहिए। जो स्वयं मुक्त नहीं है, वह दूसरों को मुक्ति का उपदेश कैसे दे सकता है? जो स्वयं
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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