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आत्मा से परमात्मा
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छहढाला में भी इसी बात की पुष्टि इन शब्दों में की गयी है:
(बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर आतम हजै;
परमातम को ध्याय निरन्तर जो नित आनन्द पूजै॥9/
अर्थात् बहिरात्मपने को छोड़ने योग्य (हेय) समझ उसे छोड़कर अन्तरात्मा हो जाना चाहिए और सदा परमात्मा का ध्यान करना चाहिए जिसके द्वारा नित्य (अविनाशी) आनन्द की प्राप्ति होती है। ___ यहाँ यह समस्या उठ खड़ी होती है कि जिस परमात्मा को हमने कभी देखा नहीं, जो इन्द्रिय, बुद्धि और वचन से परे है, उसका ध्यान हम कैसे कर सकते हैं। ध्यान करने के लिए साधक को शुरू-शुरू में किसी न किसी मूर्तिमान् या साकार स्वरूप का आधार लेना आवश्यक होता है। ___ इस समस्या के समाधान के लिए हमें जैन धर्म में बताये गये परमात्मा के दो भेदों पर ध्यान देना चाहिए। जैन धर्म के अनुसार परमात्मा के दो भेद इस प्रकार हैं: (1) सकल (शरीर सहित) या साकार और (2) निष्कल (शरीर रहित) या निराकार। स्वयं जीवन्मुक्त होकर जो महात्मा अन्य संसारी मनुष्यों को अपने उपदेश द्वारा कल्याण का मार्ग दिखलाते हैं उन्हें सकल या साकार परमात्मा कहा जाता है और जो शरीर से मुक्त हो अविनाशी परमधाम के स्वामी बन चुके हैं, उन्हें निष्कल या निराकार परमात्मा कहते हैं । इन दोनों में तत्त्वतः कोई भेद नहीं है। दोनों ही एक समान सर्वज्ञ और सर्वद्रष्टा होते हैं। इसलिए साधक अपने उपदेशदाता परमेष्ठी या सच्चे जीवन्मुक्त महात्मा का ध्यान करता हुआ इसी ध्यान के सहारे निराकार परमात्मा के ध्यान में लीन हो जाता है। इसप्रकार जैन धर्म में उक्त समस्या का आसानी से समाधान हो जाता है।
सकल (साकार) और निष्कल (निराकार) नामक परमात्मा के दोनों भेदों को बतलाते हुए जैनधर्मामृत में कहा गया है:
जिनागम (जैन धर्मग्रन्थों) में परमात्मा के दो भेद कहे गये हैं-एक सकल परमात्मा और दूसरा निष्कल परमात्मा।
स-शरीर होते हुए भी जो जीवन्मुक्त हैं और कैवल्य-अवस्था को प्राप्त कर सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन गये हैं, ऐसे अरहन्त परमेष्ठी को