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जैन धर्म: सार सन्देश
वह ध्यान करनेवाला साधक अन्य सबका शरण छोड़कर उस परमात्मस्वरूप में ऐसा लीन होता है कि-ध्याता और ध्यान-इन दोनों के भेद का अभाव होकर ध्येय (परमात्मा) स्वरूप से एकता को प्राप्त हो जाता है। इस लीनता की अवस्था में ध्याता, ध्यान और ध्येय का भेद मिट जाता है।
जिस भाव में आत्मा अभिन्नता से परमात्मा में लीन होती है, वह समरसीभाव आत्मा और परमात्मा का समानतास्वरूप भाव है, सो उस परमात्मा और आत्मा को एक करनेवाला स्वरूप कहा गया है। (भावार्थ-आत्मा और परमात्मा के इस एकत्व भाव में द्वैत भाव दूर हो जाता है; आत्मा परमात्मा बन जाती है।)
जब आत्मा परमात्मा के ध्यान में लीन होती है तब वह एकीकरण की अवस्था कही जाती है। यह एकीकरण अनन्यशरण है, परमात्मा के सिवाय अन्य आश्रय नहीं है। तब आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में होती है
और तत्स्वरूपतासे वह परमात्मा ही होती है। इस प्रकार परमात्मा के ध्यान से आत्मा परमात्मा हो जाती है।”
जैन धर्म के अनुसार बहिरात्मा को परमात्मा बनाना ही परमार्थी साधना का लक्ष्य है। जो आत्मा पहले शरीरादि बाह्य पदार्थों में अपनत्व-भाव रखने के कारण बहिरात्मा बनी रहती है, उसे बाह्य विषयों से हटाकर आत्मिक ध्यान में लगाया जाता है। इस अन्तर्मुखी साधना से वह अन्तरात्मा बन जाती है। फिर अन्तरात्मा परमात्मा के ध्यान में लीन होने के अभ्यास द्वारा परमात्मा बन जाती है। इसीलिए जैन ग्रन्थों में बार-बार बहिरात्म-भाव को छोड़कर अन्तरात्म-भाव में दृढ़ता से स्थित होने और फिर अन्तरात्मा को परमात्मा के ध्यान में लीनकर उसे परमात्मा बनाने का उपदेश दिया गया है। उदाहरण के लिए जैनधर्मामृत में कहा गया है:
त्यक्त्वैवं बहिरात्मानमन्तरात्मव्यवस्थितः। भावयेत् परमात्मानं सर्वसंकल्पवर्जितम्॥ इस प्रकार आत्मा के तीनों भेदों को जानकर बहिरात्मापन को छोड़ना चाहिए और अपने अन्तरात्मा में अवस्थित होकर सर्वसंकल्प-विकल्पों से रहित परमात्मा का ध्यान करना चाहिए।