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आत्मा से परमात्मा
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छोड़कर उसमें ही अपने अन्तरात्मा को लगाकर उसे जानना चाहिए। जो वचन के द्वारा कहा नहीं जा सकता, इन्द्रियों के द्वारा जाना नहीं जा सकता, जो अव्यक्त, अनन्त, वचन से परे, अजन्मा और आवागमन से रहित है, उस परमात्मा का निर्विकल्प (अविचलित) होकर ध्यान करना चाहिए। जिस परमात्मा के ज्ञान के अनन्तवें भाग में द्रव्य पर्यायों से भरा हुआ यह अलोकसहित लोक स्थित है, वही परमात्मा तीन लोक का गुरु है।
जैन धर्म के ही समान योगदर्शन में भी परमात्मा या ईश्वर को सभी गुरुओं का गुरु कहा गया है। पतञ्जलि रचित योगसूत्र में स्पष्ट कहा गया है:
___ सः पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदत्वात् । अर्थात् वह (ईश्वर) पूर्वकाल में आये सभी गुरुओं का गुरु है, क्योंकि वह काल (समय) द्वारा सीमित नहीं है। भाव यह है कि इस संसार में आनेवाले सभी सच्चे गुरु, चाहे वे भूतकाल में, वर्तमान काल में या भविष्य काल में आयें, वे सभी तत्त्वतः परमात्मा से अभिन्न होते हैं, क्योंकि वे सभी उस अव्यक्त या निराकार परमात्मा के ही व्यक्त या साकार रूप होते हैं। अन्तर केवल इतना ही है कि कोई भी गुरु किसी निश्चित समय के लिए ही संसार में आता है, जबकि अनादि और अनन्त परमात्मा सदा क़ायम रहनेवाला है; वह समय की सीमा से परे है।
अब यह बतलाते हुए कि स्मरण (सुमिरन) और ध्यान या समाधि के नियमित अभ्यास द्वारा साधक की आत्मा परमात्मा से एकाकार हो जाती है, शुभचन्द्राचार्य कहते हैं:
इस प्रकार निरन्तर स्मरण करता हुआ योगी उस परमात्मा के स्वरूप के अवलंबन से युक्त होकर उसके तन्मयत्व (उसमें लीन होने की अवस्था) को प्राप्त होता है।
आत्मा किस प्रकार परमात्मा में लीन होकर परमात्मा से पूर्णतः एकाकार हो जाती है, या यों कहें कि परमात्मा ही बन जाती है-इसे शुभचन्द्राचार्य ने इन शब्दों में व्यक्त किया है: