SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 343
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 342 जैन धर्म: सार सन्देश जिसके चित्त में राग-द्वेषादिरूप किसी प्रकार का विक्षेप न हो, जो जन-सम्पर्क से रहित एकान्त शान्त स्थान पर अवस्थित हो और हेयउपादेयरूप (छोड़ने और ग्रहण करने योग्य) तत्त्व विषय में जिसकी निश्चल बुद्धि हो, ऐसा योगी संयमी जितेन्द्रिय पुरुष अभियोग से अर्थात् आलस्य, निद्रा और प्रमाद आदि को दूर कर अपने आत्मा के यथार्थ स्वरूप की भावना (ध्यान) करे। जिसने आत्मभावना का अभ्यास करना अभी आरम्भ किया है, उस योगी को अपने पुराने संस्कारों के कारण बाह्य-विषयों में सुख मालूम होता है और आत्मस्वरूप की भावना में दुःख प्रतीत होता है। किन्तु यथावत् आत्मस्वरूप को जानकर उसकी (दृढ़) भावनावाले योगी को बाह्य विषयों में दुःख की प्रतीति होने लगती है और अपने आत्मा के स्वरूप चिन्तन में ही सुख की अनुभूति होती है। संवित्ति अर्थात् अत्मानुभूति या स्वानुभव में जैसे-जैसे उत्तम तत्त्व अर्थात् आत्मा का शुद्ध स्वरूप सम्मुख आता जाता है, वैसे-वैसे ही सहज सुलभ भी इन्द्रियों के विषय अरुचिकर लगने लगते हैं। और जैसे-जैसे सहज सुलभ भी इन्द्रिय-विषय अरुचिकर लगने लगते है, वैसे-वैसे ही स्वानुभव में आत्मा का शुद्ध स्वरूप सामने आता जाता है। जिसे स्वात्म-संवित्ति (अपनी आत्मा का निजी अनुभव या अनुभूति) हो जाती है, उसे यह समस्त जगत् इन्द्रजाल (मायाजाल) के समान दिखाई देने लगता है, वह केवल स्वात्म-स्वरूप के लाभ की ही अभिलाषा करता है; और किसी वस्तु के पाने की इच्छा उसे नहीं रहती। यदि कदाचित् किसी पदार्थ में उसकी प्रवृत्ति हो जाती है, तो उसे अत्यन्त पश्चात्ताप होता है। मनुष्यों के साथ बैठकर मनोरंजन करने में उसे कोई आनन्द नहीं आता, अतएव वह एकान्त वास की इच्छा करता है।45 मनुष्य बहुत ही संवेदनशील प्राणी है। जिन अच्छे या बुरे व्यक्तियों, पदार्थों और गुणों का वह स्मरण, चिन्तन और ध्यान करता है, उन्हीं के समान वह बन जाता है। यही कारण है कि जैन धर्म में स्मरण और ध्यान को विशेष महत्त्व दिया गया है और साधकों को आत्मतत्त्व या परमात्मतत्त्व का चिन्तन और ध्यान करने का उपदेश दिया गया है। सतगुरु या अरहन्त देव परम पवित्र और सद्गुणों के
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy