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________________ 330 जैन धर्म : सार सन्देश / # मैं सदाकाल एक हूँ (पर के संयोग से रहित हूँ), निर्मम हूँ ( ममत्व भाव से रहित हूँ), शुद्ध हूँ, ज्ञानी हूँ ( स्व पर के भेद-विज्ञानरूप विवेक-ज्योति से प्रकाशमान हूँ ) और योगीन्द्रगोचर हूँ (केवल - श्रुतकेवली आदि महान् योगियों के ज्ञान का विषय हूँ ) । कर्म- संयोग से प्राप्त बाहरी सभी पदार्थ मेरे से सर्वथा भिन्न हैं, वे त्रिकाल में भी मेरे नहीं हो सकते। 22/ सांसारिक विषयों के प्रति राग या आसक्ति होने के कारण ही जीव बन्धन में पड़ता है और उनसे वीतराग या अनासक्त हो जाने पर मुक्त हो जाता है। यही जैन धर्म का मूल उपदेश है, जैसा कि जैनधर्मामृत में स्पष्ट किया गया है: /बध्यते मुच्यते जीवः सममो निर्ममः क्रमात्। तस्मात्सर्वप्रयत्नेन निर्ममत्वं विचिन्तयेत् ॥ स्त्री-पुत्र-धनादि में ममता रखनेवाला जीव कर्मों से बँधता है और उनमें ममता भाव नहीं रखनेवाला जीव कर्मों से छूटता है। इसलिए ज्ञानी जनों को चाहिए कि वे सर्व प्रकार के प्रयत्न के द्वारा निर्ममत्वभाव का चिन्तन करें; अर्थात् पर पदार्थों में ममता का त्याग करें। / रागी बध्नाति कर्मारिखिा वीतरागी विमुञ्चति । जीवो जिनोपदेशोऽयं संक्षेपाद् बन्धमोक्षयोः ॥ रागी जीव कर्मों को बाँधता है और वीतरागी कर्मों से विमुक्त होता है। संक्षेप में जिनदेव ने बन्ध और मोक्ष का इतना ही उपदेश दिया है। 23 वीतरागता या अनासक्ति का भाव दृढ़ करने के लिए अभ्यासी को सांसारिक व्यक्तियों और पदार्थों के प्रति अपने ममत्व का पूरी तरह त्याग कर देना बिल्कुल आवश्यक है । इस ममत्व से छुटकारा पाने के लिए जैनधर्मामृत में अभ्यासी को निम्नलिखित विचारधारा को अपनाने का उपदेश दिया गया है: कुटुम्ब, धन और शरीरादि के संयोग से ही देहियों को (शरीरधारी संसारी प्राणियों को ) इस संसार में सहस्त्रों दुःख भोगने पड़ते हैं ।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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