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आत्मा से परमात्मा
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आत्मज्ञान के बिना अन्य पदार्थों के ज्ञान को मिथ्या ज्ञान या अज्ञान बतलाते हुए श्रावक प्रतिक्रमणसार में कहा गया है:
जो अपने आत्मा के स्वरूप को जानता हुआ अन्य पदार्थों के स्वरूप को जानता है वही सम्यग्ज्ञान कहलाता है। जो ज्ञान अपने आत्मा के स्वरूप को नहीं जानता वह अन्य पदार्थों के स्वरूप को यथार्थ रीति से नहीं जान सकता। यही कारण है कि आत्मज्ञान के बिना जितना ज्ञान है वह सब मिथ्या-ज्ञान वा अज्ञान कहलाता है।20/
सभी धार्मिक प्रयत्नों का लक्ष्य भी आत्मज्ञान की प्राप्ति ही है। इसलिए जो धार्मिक कार्य आत्मज्ञान की प्राप्ति में सहायक न हो, उसे निरर्थक ही समझना चाहिए। यह बतलाते हुए कि अपनी आत्मा की अनुभूति (अनुभव) के बिना सभी धार्मिक प्रयत्न निरर्थक हैं, हुकमचन्द भारिल्ल अपनी पुस्तक, तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, में कहते हैं:
सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए अनिवार्य शर्त है आत्मानुभूति का प्राप्त होना। आत्मानुभूति के बिना समस्त प्रयत्न निरर्थक है। ...अन्तिम रूप से इतना कहना है कि एकमात्र परमार्थ स्वरूप आत्मा का अनुभव करो, ...एकमात्र निज शुद्धात्मा का अनुभव करना ही सार है।
आत्मा के आन्तरिक अनुभव द्वारा जब अभ्यासी को आत्मा के स्वरूप का ज्ञान होता है तब वह आत्मा को नित्य अमर और अविनाशी तथा सभी बाहरी पदार्थों से भिन्न समझकर उनसे वीतराग या अनासक्त हो जाता है। जैनधर्मामृत के अनुसार उसकी विचारधारा इस प्रकार की हो जाती है:
८ ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न मेरी यह आत्मा सदा एक अखण्ड, ध्रुव,
अविनाशी और अमर है। इसके अतिरिक्त जितने बाहरी पदार्थ हैं, वे सब मेरे से भिन्न हैं और नदी-नाव-संयोग के समान कर्म-संयोग से प्राप्त हुए हैं। इसलिए मुझे पर पदार्थों में राग-द्वेष को छोड़कर एकमात्र अपनी आत्मा में ही अनुराग करना चाहिए।