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जैन धर्म : सार सन्देश
जैन धर्म में भेद - विज्ञान द्वारा भी आत्मा को अन्य वस्तुओं से भिन्न बतलाया गया है और उसके स्वरूप का अनुभव प्राप्त करने पर ज़ोर दिया गया है, जैसा कि हुकमचन्द भारिल्ल के निम्नलिखित कथन से स्पष्ट है:
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पर से भिन्न निजात्मा को जानना ही भेद - विज्ञान है । भेद-विज्ञान 'स्व' और 'पर' के बीच किया जाता है, अतः इसे स्वपर - भेद विज्ञान भी कहा जाता है। वस्तुतः यह आत्म-विज्ञान ही है, क्योंकि इसमें पर से भिन्न निजात्मा को जानना ही मूल प्रयोजन है ।
-भेद विज्ञान में मूल बात दोनों को मात्र जानना या एकसा जानना नहीं, भिन्न-भिन्न जानना है । भिन्न-भिन्न जानना भी नहीं, पर से भिन्न स्व को जानना है। पर को छोड़ने के लिए जानना है और स्व को पकड़ने के लिए। पर को मात्र जानना है और स्व को जानकर उसमें जमना है, रमना है । 18
जबतक जीव को अन्तरात्मा का अनुभव नहीं होता तबतक पारमार्थिक दृष्टि से वह सोया रहता है; अन्तरात्मा के अनुभव द्वारा ही वह जागृत होता है । इस आत्मा का ज्ञान इन्द्रियों द्वारा नहीं हो सकता और न वचन द्वारा इसका वर्णन किया जा सकता है । अन्तरात्मा का ज्ञान केवल आन्तरिक अनुभव द्वारा ही होता है और इस ज्ञान के होने पर ही अन्य पदार्थों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है। इसलिए पारमार्थिक दृष्टि से अन्तरात्मा के ज्ञान के बिना अन्य सभी ज्ञान को निरर्थक कहा गया है। अनेक जैन ग्रन्थों में इन बातों की ओर हमारा ध्यान दिलाया गया है। उदाहरण के लिए, जैनधर्मामृत में कहा गया है:
जिस शुद्धात्म-स्वरूप की प्राप्ति न होने से मैं अबतक मोह - निद्रा में सोता रहा और जिस शुद्धात्म-स्वरूप की प्राप्ति होने पर मैं जागृत हुआ हूँ, अर्थात् यथावत् वस्तुस्वरूप को जानने लगा हूँ, वह शुद्धात्म-स्वरूप अतीन्द्रिय है अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है और अनिर्देश्य है अर्थात् वचनादि के भी अगोचर है । वह तो केवल अपने-द्वारा आप ही अनुभव करने योग्य है, उसी रूप मैं हूँ ।"
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