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आत्मा से परमात्मा
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स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने के साथ ही अन्य पदार्थों का भी ज्ञान प्राप्त कर लेता है। इसलिए आत्मा को स्वपरभासी, अर्थात् अपने और साथ ही अपने से भिन्न पदार्थों को प्रकाशित करनेवाली कहा जाता है। इस तथ्य को आचार्य कुन्थुसागरजी ने एक उपमा के सहारे इस प्रकार समझाया है:
जिस प्रकार दीपक अन्य पदार्थों को प्रकाशित करता है और अपने स्वरूप को भी प्रकाशित करता है, जलते हुए दीपक को देखने के लिए किसी अन्य दीपक को देखने की आश्यकता नहीं होती, वही जलता हुआ दीपक अपने स्वरूप को भी प्रकाशित कर देता है, इसी प्रकार यह ज्ञानमय आत्मा अपने ज्ञान से अन्य पदार्थों को भी प्रकाशित करती है और स्वानुभूति के द्वारा अपने स्वरूप को भी प्रकाशित करती है।
यहाँ दीपक की उपमा केवल आत्मा के स्वपरभासी होने का संकेत देने के लिए दी गयी है। वास्तव में आत्मा अलौकिक है, जिसकी उपमा संसार की किसी भी वस्तु से दी ही नहीं जा सकती। इसे केवल निजी अनुभव द्वारा ही जाना जा सकता है। कानजी स्वामी ने स्पष्ट रूप से कहा है:
अलौकिक चीज आत्मा है, उसके स्वभाव को अन्य कोई बाह्य पदार्थ की उपमा नहीं दी जा सकती, अपने स्वभाव से ही वह जाना जाता है। ऐसे आत्मा को जब स्वानुभव से जाने तभी सम्यग्दर्शन होता है।
आत्मा के आनन्द स्वरूप का उल्लेख करते हुए भी वे आत्मा की बाह्य पदार्थों से भिन्नता दिखलाते हैं। वे कहते हैं:
आत्मा स्वयं सुखधाम है फिर विषयों का क्या काम है? जिसको आत्मा में से ही सुख का अनुभव हो रहा है उसे बाह्य विषयों का क्या काम है? जहाँ आत्मा के सहज सुख में लीनता है वहाँ बाह्य पदार्थ की इच्छा ही नहीं रहती। सुख तो आत्मा में से उत्पन्न होता है, किसी बाह्य वस्तु में से नहीं आता। बाह्य पदार्थों का उपभोग करना कौन चाहेगा?-कि जो इच्छा से दु:खी होगा, वह। जो स्वयं अपने आप सुखी होगा वह अन्य पदार्थ की इच्छा क्यों करेगा? जो नीरोग हो वह दवाई की क्यों इच्छा करे?" /