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________________ 326 जैन धर्म: सार सन्देश अत: इस शरीर को, इन्द्रियों को और उनके विषयों को आत्मस्वरूप से सर्वथा भिन्न जाने। शरीरादि को आत्मा समझने के कारण जीव जिस अज्ञान के घोर अन्धकार में पड़ा इस संसार में भटक रहा है उस अन्धकार का विनाश केवल इस आन्तरिक ज्ञान द्वारा ही हो सकता है। यह ज्ञान का प्रकाश तीसरे नेत्र के खुलने पर ही प्राप्त होता है। जैनधर्मामृत में इसे इन उपमाओं द्वारा समझाया गया है: जो मिथ्याज्ञानरूप उत्कट (घोर) अन्धकार चन्द्र के अगम्य है (अर्थात् जहाँ चन्द्रमा का प्रकाश पहुँच नहीं सकता) और सूर्य से भी दुर्भेद्य है, (अर्थात् जहाँ सूर्य की किरणें भी प्रवेश नहीं कर सकतीं) वह सम्यग्ज्ञान से ही नष्ट किया जाता है। ___ इस संसाररूपी उग्र (कठिन) मरुस्थल में दुःखरूपी अग्नि से संतप्त जीवों को यह सत्यार्थ ज्ञान (आत्मारूपी सत्य पदार्थ का ज्ञान) ही अमृतरूपी जल से तृप्त करने के लिए समर्थ है, अर्थात् संसार के दुःखों को मिटानेवाला सम्यग्ज्ञान ही है। __ जबतक ज्ञानरूपी सूर्य का सातिशय (पूर्ण प्रकाश के साथ) उदय नहीं होता है, तभीतक यह समस्त जगत् अज्ञानरूपी अन्धकार से आच्छादित . रहता है, किन्तु ज्ञान के प्रकट होते ही अज्ञान का विनाश हो जाता है। ___ इन्द्रिय रूप मृगों को बाँधने के लिए ज्ञान ही एक दृढ़ पाश (फंदा) है, क्योंकि ज्ञान के बिना इन्द्रियाँ वश में नहीं होती। तथा चित्तरूपी सर्प का निग्रह (नियन्त्रण) करने के लिए ज्ञान ही एकमात्र गारुडमहामन्त्र है, क्योंकि ज्ञान से ही मन वशीभूत होता है। ज्ञान ही तो संसाररूपी शत्र के नष्ट करने के लिए तीक्ष्ण खड्ग (तलवार) है और ज्ञान ही समस्त तत्त्वों को प्रकाशित करने के लिए तीसरा नेत्र है। अपने अन्तर में ज्ञान का प्रकाश हो जाने पर जीव का संसार के प्रति दृष्टिकोण बदल जाता है, क्योंकि तब जीव सांसारिक वस्तुओं की नश्वरता और मिथ्यात्व को यथार्थ रूप में समझने लगता है। इस प्रकार जीव अपने
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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