________________
आत्मा से परमात्मा
325
इसप्रकार प्रत्येक जीव को अपनी आत्मा के अस्तित्व का आभास होता है । पर उसे अपने यथार्थ स्वरूप का अनुभव नहीं होता कि वह वास्तव में अविनाशी, अनन्त ज्ञानमय और आनन्दमय है । इसका अनुभव प्राप्त करने के लिए अपने ध्यान को बाहरी विषयों से हटाकर एकाग्रता के साथ अन्दर में लगाना आवश्यक है। इसे जैनधर्मामृत में इस प्रकार समझाया गया है:
संयम्य करणग्राममेकाग्रत्वेन चेतसः ।
आत्मानमात्मवान् ध्यायेदात्मनैवात्मनि स्थितम् ॥
इन्द्रिय- समुदाय का नियमन कर और चित्त को एकाग्र कर आत्मा अपने ही द्वारा अपने में अवस्थित होकर अपने स्वरूप का ध्यान करे । भावार्थ - आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए बाह्य किसी भी वस्तु के ग्रहण की आवश्यकता नहीं है, अपितु उनके त्याग की ही आवश्यकता है। जब यह आत्मा चारों ओर से अपनी प्रवृत्ति हटाकर, इन्द्रियों के विषय और मन की चंचलता को भी रोककर अपने-आपमें स्थिर होने का प्रयत्न करती है, तभी उसे आत्म-स्वरूप की प्राप्ति होती है। 12
आत्मा का स्वरूप अनन्त ज्ञानमय और परम प्रकाशमय है । इसलिए जब साधक बाहरी विषयों की ओर दौड़नेवाली अपनी इन्द्रियों को नियन्त्रित कर एकाग्र· भाव से अपने ध्यान को अपने अन्दर ले जाता है, तब उसे अन्तरात्मा के प्रकाश या आन्तरिक ज्योति का दर्शन होता है । इसका उल्लेख जैनधर्मामृत इस प्रकार किया गया है:
इस जड़ पार्थिव देह में आत्म- बुद्धि का होना ही संसार के दुःख का मूल कारण है, अतएव इस मिथ्या बुद्धि को छोड़कर और बाह्य विषयों में दौड़ती हुई इन्द्रियों की प्रवृत्ति को रोककर अन्तरंग में प्रवेश करे । अर्थात् ज्ञान-दर्शनात्मक अन्तर्ज्योति में आत्म - बुद्धि करे, उसे अपनी आत्मा माने ।
जो यह इन्द्रियों का विषयात्मक रूप है, वह मेरे आत्मस्वरूप से विलक्षण है - भिन्न है । मेरा रूप तो आनन्द से भरा हुआ अन्तर्ज्योतिमय है ।