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जैन धर्मः सार सन्देश ____ अब हमें यह समझना है कि जैन धर्म के अनुसार अन्तरात्मा किसे कहते हैं और अन्तरात्मा बनने का क्या उपाय है।
अन्तरात्मा हम देख चुके हैं कि आत्मा चेतन स्वरूप है। इसके विपरीत शरीर, इन्द्रिय
और संसार की सभी अन्य बाहरी वस्तुएँ जड़ या अचेतन हैं। इसलिए बाहरी वस्तुओं को आत्मा मानने की भूल को मिथ्या दृष्टि या बहिरात्मा कहा गया है
और इसे त्यागने का उपदेश दिया गया है। जिस चेतन स्वरूप आत्मा को हम जानना चाहते हैं, वह कहीं बाहर नहीं है। वह हमारे अन्दर ही है और अपने अन्दर ही हम उसे जान सकते हैं। अपने अन्दर में अनुभव की जानेवाली इस चेतन सत्ता या आत्मा को ही जैन धर्म में अन्तरात्मा कहा जाता है। जब तक हमारा ध्यान आत्मा से भिन्न बाहरी पदार्थों में अटका रहता है और हम बाहरी वस्तुओं में आसक्त रहते हैं तब तक हमें अन्तरात्मा का ज्ञान या अनुभव नहीं हो सकता। अन्तरात्मा का अनुभव प्राप्त करने के लिए हमें अपनी इन्द्रियों को बाहर जाने से रोककर अपने ध्यान को अन्दर में एकाग्र करना आवश्यक है। तभी हमें अपने अन्तर में अपनी आत्मा का प्रकाश दिखाई पड़ सकता है। अन्य किसी भी उपाय से अन्तरात्मा का ज्ञान सम्भव नहीं है।
यह समझाते हुए कि अन्तरात्मा किसे कहते हैं, पंडित हीरालाल जैन कहते हैं:
जिसकी दृष्टि बाहरी पदार्थों से हटकर अपने आत्मा की ओर रहती, है, जिसे स्व-पर का (अपने और अपने से भिन्न दूसरों का) विवेक हो जाता है, जो लौकिक कार्यों में अनासक्त और आत्मिक कार्यों में सावधान रहता है, उसे अन्तरात्मा या सम्यग्दृष्टि कहते हैं।"
अन्तरात्मा का ज्ञान किसी बाहरी इन्द्रिय द्वारा नहीं हो सकता, क्योंकि इन्द्रियाँ केवल बाहरी विषयों का ही ज्ञान दे सकती हैं। उनकी पहुँच कभी अन्तर में नहीं हो सकती। इसलिए अन्तरात्मा का ज्ञान केवल अपने अन्तर में ही हो सकता है। यों प्रत्येक जीव को 'मैं हूँ' का अनुभव होता है।