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________________ आत्मा से परमात्मा बहिर्विषयसम्बन्धः सर्वः सर्वस्य सर्वदा । अतस्तद् भिन्नचैतन्यबोधयोगौ तु दुर्लभौ ।” 323 अर्थात् सभी बाहरी विषयों से सम्बन्ध होना सभी जीवों के लिए सदा ही सुलभ है, पर इन बाहरी विषयों से भिन्न चैतन्यस्वरूप आत्मा का ज्ञान ( अनुभव) प्राप्त करना, जो वास्तविक योग है, दुर्लभ है। बहिरात्म - बुद्धि जीव को इतनी बुरी तरह जकड़ लेती है कि उसका विवेक नष्ट हो जाता है अथवा अत्यन्त मन्द पड़ जाता है। ऐसा मूढबुद्धि जीव अपने हित और अहित को नहीं समझ पाता और स्वयं अनन्त आनन्दस्वरूप होते हुए -भी अपने निज स्वरूप को भूलकर क्षुद्र इन्द्रिय-सुख के लिए सांसारिक विषयों के पीछे बेतहाशा दौड़ता रहता है। जैनधर्मामृत में हीरालाल जैन ने ऐसे जीव की दशा का बड़ा ही मार्मिक चित्र उपस्थित किया है । वे कहते हैं: 1 बहिरात्मा के अपने आत्मा की भलाई - बुराई का परिज्ञान नहीं होता है, इसलिए वह आत्मा के परम शत्रुस्वरूप इन्द्रिय-विषयों को बड़े चाव से सेवन करता है। ऐसा बहिरात्मा प्राणी सांसारिक वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए निरन्तर छटपटाता रहता है और अनेक निरर्थक आशाओं को करता रहता है। राक्षसी और आसुरी वृत्ति को धारण करता है, प्रमादी, आलसी और अतिनिद्रालु होता है, क्रोध, मान, माया, दम्भ और लोभ से युक्त होता है। काम सेवन में आसक्त एवं भोगोपभोग के साधन जुटाने में संलग्न रहता है और सोचा करता है कि आज मैंने यह पा लिया है, कल मुझे यह प्राप्त करना है, मेरे पास इतना धन है, और आगे मैं इतना कमाऊँगा । मेरा अमुक शत्रु है, मैंने अमुक शत्रु को मार दिया है और अमुक को अभी मारूँगा। मैं ईश्वर हूँ, स्वामी हूँ, ये सब मेरे सेवक और दास हैं। मेरे समान दूसरा कौन है, मैं कुलीन हूँ, और ये अकुलीन हैं, इस प्रकार के विचारों से यह बहिरात्मा प्राणी सदा घिरा रहता है। 10 इससे स्पष्ट है कि संसार से मुक्ति और सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए बहिरात्म-भाव का त्याग करना अत्यन्त आवश्यक है।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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