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________________ Cu जैन धर्म: सार सन्देश को शरीर मानने का भाव इतना स्वाभाविक लगने लगता है कि बार-बार साधु-महात्माओं के उपदेशों को सुनने के बाद भी इस भ्रम से छुटकारा पाना अत्यन्त कठिन हो जाता है। इसीलिए आचार्य अमितगति मोक्ष-सुख की प्राप्ति के लिए आत्म-स्वरूप को प्राप्त करने का उपदेश देते हुए बड़ी ही स्पष्टता के साथ कहते हैं: मोही जीव मोह में फँसकर अपने स्वरूप को भूल जाता है। इसलिए अनन्त सुख को देनेवाली मुक्ति को कभी नहीं पा सकता है। वास्तव में मुक्ति अपने सच्चे आत्मा के स्वभाव की प्राप्ति है।' मोही जीव को अपने कुटुम्ब के प्रति विशेष आसक्ति होती है। इसलिए कुटुम्ब की असलियत बताते हुए वे फिर कहते हैं: एक कुटुम्ब में जीव भिन्न-भिन्न गतियों (योनियों) से आकर जमा हो जाते हैं। वे ही जीव आयु पूरी करके अपनी-अपनी बाँधी गति के अनुसार चले जाते हैं। धर्मशाला के यात्रियों के समान कुटुम्बीजनों का समागम (मिलाप) है। मोही जीव उनसे गाढ़ (गहरा) मोह करके अपने स्वात्मा (अपनी आत्मा) को भूल जाते हैं। यदि हम किसी भी व्यक्ति की मृत्यु के समय पर ध्यान दें तो यह स्पष्ट हो. जाता है कि जिन व्यक्तियों या वस्तुओं के प्रति उसकी गहरी आसक्ति थी उन सबको छोड़कर उसे अकेले ही संसार से जाना पड़ता है। अन्त समय में कोई भी सगा-सम्बन्धी, माता-पिता, भाई-बन्धु, कुटुम्ब-परिवार अथवा कुछ भी धन-सम्पत्ति या हाट-हवेली साथ नहीं जाती। इसलिए इन सबके प्रति अपनी आसक्ति को त्यागकर आत्म-स्वरूप की पहचान करनी चाहिए। किन्तु यह सबकुछ बाहरी तौर पर देखने और सुनने के बाद भी बाहरी विषयों से ध्यान को हटाना और इसे अपने अन्दर लाकर चैतन्यस्वरूप आत्मा में लीन करना अत्यन्त कठिन है। पर यही सच्चा योग है जिसके द्वारा सच्चे आत्मज्ञान और सच्ची मुक्ति की प्राप्ति होती है। इसी तथ्य को समझाते हुए एकत्वाशीति में पद्मनन्दि मुनि कहते हैं:
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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