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आत्मा से परमात्मा
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भावना से उत्पन्न संस्कार के कारण उन्हीं इन्द्रियों के विषयों में आसक्त रहता है।
बहिरात्म बुद्धिवाले व्यक्ति का शरीर के साथ इतना गहरा अपनेपन का भाव हो जाता है कि वह शरीर के गुणों को ही अपना गुण मानने लगता है। शरीर के काले-गोरे, दुबले-मोटे, सुरूप-कुरूप, रोगी-नीरोग आदि होने पर वह इन गुणों को अपना ही गुण मानने लगता है और इनके कारण सुखी या दुःखी होता है। शरीर की इन्द्रियों के साथ भी उसका ऐसा ही अपनेपन का भाव होता है और वह अपने को इनसे अभिन्न मानकर इनकी विभिन्न अवस्थाओं के अनुसार अपने को अन्धा, काना, बहरा, लूला, लँगड़ा आदि मानता है। शरीर के साथ अपनत्व भाव होने के कारण ही उसे इस अमर और अविनाशी आत्मा के जन्म-मरण के चक्र में पड़े होने का अनुभव होता है। मनुष्य, पशु, पक्षी आदि विभिन्न योनियों में शरीर धारण करने पर वह उन्हीं रूपों को अपना स्वरूप मानता है। इस प्रकार इन सब कुछ में उसका 'मैं हूँ' का भाव, अर्थात् .अंहभाव दृढ़ होता रहता है।
जिस प्रकार वह अपनी आत्मा को देहरूप में ग्रहण करता है उसी प्रकार वह दूसरी आत्माओं को भी देहरूप ही मानता है। इस प्रकार वह अपने और पराये के भम्र में पड़ जाता है। शरीर में आत्म-बुद्धि होने के कारण ही वह राग, द्वेष और मोह का शिकार बनता है और विभिन्न आत्माओं में उसे माता, पिता, भाई, स्त्री, पुत्र, मित्र, शत्रु आदि का भाव उत्पन्न होता है।
शरीर में आत्म-भाव होने से अहंभाव के साथ ही ममत्व-भाव, अर्थात् मेरेपन का भाव भी उत्पन्न हो जाता है, जैसे 'यह मेरी माता है', 'यह मेरा पुत्र है', 'यह मेरा मित्र है' इत्यादि। ममत्व-भाव केवल दूसरी आत्माओं तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि यह अन्य सांसारिक वस्तुओं पर भी छा जाता है, जैसे, 'यह मेरा घर है', 'ये मेरे कपड़े हैं, 'यह मेरी सम्पत्ति है', इत्यादि।
इस प्रकार के भ्रम से उत्पन्न मोह के कारण राग-द्वेष आदि विकार लगातार बढ़ते जाते हैं और संसार या आवागमन की जड़ अविद्या का संस्कार दृढ़ होता जाता है। जन्म-जन्मान्तर से दृढ़ हुए अविद्या के संस्कार के कारण आत्मा