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जैन धर्म : सार सन्देश
शरीर, आत्मा कभी एक नहीं हो सकते। शरीर जड़ है और आत्मा चैतन्यमय वा ज्ञानमय है । इसलिए शरीर और आत्मा को एक ही माननेवाली बुद्धि सर्वथा मिथ्या है। जो जीव इन भेदों को नहीं जानता वह बहिरात्म बुद्धि का त्याग नहीं कर सकता और इसलिए वह आत्मा के कल्याण के कार्यों को तो छोड़ देता है और शरीर को सुख देने के लिए अनेक प्रकार के पाप उत्पन्न करता रहता है, जिनसेकि वह सदाकाल संसार में परिभ्रमण किया करता है । परन्तु जो पुरुष इस आत्मा के यथार्थ भेदों को जानता है वह त्याग करने योग्य बहिरात्म बुद्धि का त्याग कर देता है और अंतरात्मा बनकर परमात्मा बनने का प्रयत्न करता है। 4
कानजी स्वामी ने भी शरीर और आत्मा की भिन्नता को बड़ी ही स्पष्टता के साथ व्यक्त किया है । वे कहते हैं:
जो जड़ है वह तीनों काल जड़ ही रहता है, और जो चेतन है वह तीनों काल चेतन ही रहता है। जड़ और चेतन कभी भी एक नहीं होते; शरीर और आत्मा सदैव जुदे ही हैं। ऐसे आत्मा को अनुभव में लेने से सम्यग्दर्शन होकर अपूर्व शान्ति होती है । ऐसे आत्मा की धर्मदृष्टि के बिना मिथ्यात्व मिटता नहीं, दुःख टलता नहीं और शान्ति होती नहीं । S
हमारे शरीर की पाँचों इन्द्रियाँ केवल संसार के बाहरी विषयों से सम्पर्क बनाने के लिए बनायी गयी हैं । वे अन्दर जाकर आत्मा से सम्पर्क नहीं बना सकतीं। इन्हें अपना मानकर इनके द्वारा जिन बाहरी विषयों को प्राप्त करने की चेष्टा की जाती है, वे सभी भ्रामक और अकल्याणकारी सिद्ध होते है । जैनधर्मामृत में स्पष्ट कहा गया है:
न तदस्तीन्द्रियार्थेषु यत्क्षेमङ्करमात्मनः ।
तथापि रमते बालस्तत्रैवाज्ञानभावनात् ॥
पाँचों इन्द्रियों के विषयों में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जो आत्मा का
भला करनेवाला हो, तो भी यह अज्ञानी जीव अनादि काल के अज्ञान