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आत्मा से परमात्मा बहिरात्मा जैनधर्मामृत में बहिरात्मा का स्वरूप इस प्रकार समझाया गया है:
आत्मबुद्धिः शरीरादौ यस्य स्यादात्मविभ्रमात्।
बहिरात्मा स विज्ञेयो मोहनिद्रास्तचेतनः॥ जिस जीव के शरीरादि पर-पदार्थों में आत्म-बुद्धि है, अर्थात् जो आत्मा के भ्रम से शरीर-इन्द्रिय आदि को ही आत्मा मानता है और जिसकी चेतना-शक्ति मोहरूपी निद्रा से अस्त हो गयी है, उसे बहिरात्मा जानना चाहिए।
स्पष्ट है कि जो जीव मोहवश भ्रम में पड़कर शरीरादि बाहरी वस्तुओं को आत्मा मानता है, उन्हें अपना समझता है और उनके प्रति राग-द्वेष आदि रखकर उनमें आसक्त होता है, उसे जन्म-मरण के चक्र में आना पड़ता है। __ शरीर और इन्द्रियों को आत्मा समझने की भूल के कारण वह उनके द्वारा इस संसार में अनेकों प्रकार के कर्म करने में उलझा रहता है और सोचता है कि इन कर्मों द्वारा वह अपना कल्याण कर सकेगा और सुखी बन जायेगा। पर उसे बार-बार इस संसार से निराश होकर ही जाना पड़ता है।
इस प्रकार शरीरादि को आत्मा समझनेवाले जीव के शरीरादि द्वारा किये गये कार्य आत्मा के अनुकूल न होकर इसके प्रतिकूल ही होते हैं, जैसा कि जैनधर्मामृत में कहा गया है:
अक्षद्वारैरविश्रान्तं स्वतत्त्वविमुखै शम्। व्यापृतो बहिरात्माऽयं वपुरात्मेति मन्यते ॥ इन्द्रियों के द्वारा बाहरी व्यापारों में उलझा हुआ यह बहिरात्मा शरीर को ही आत्मा मानता है। इसका व्यापार स्वतत्त्व से अर्थात् अपनी आत्मा से सदा सर्वथा विमुख या प्रतिकूल ही रहता है।
आत्मा चेतन और अविनाशी है, पर शरीर जड़ और नाशवान् है। इसलिए इन दो बिल्कुल भिन्न पदार्थों को एक मानना सर्वथा भ्रामक और अकल्याणकारी सिद्ध होता है। इस सचाई की ओर ध्यान दिलाते हुए आचार्य कुन्थुसागर जी महाराज कहते हैं: