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2010
आत्मा से परमात्मा
आत्मा अपने असली रूप में परम शुद्ध होती है। इसकी शुद्धता में अभाव आने के कारण ही यह संसार के बन्धन में पड़ती है और शुद्धता की प्राप्ति होने पर मुक्त हो जाती है, अर्थात् परमात्मरूप ग्रहण कर लेती है। अशुद्धता और शुद्धता की दृष्टि से जैन धर्म में आत्मा की तीन प्रमुख अवस्थाएँ बतलायी गयी हैं जिनके अनुसार आत्मा के निम्नलिखित तीन प्रमुख भेद किये जाते हैं: बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। इन भेदों को भली-भाँति समझ लेना आवश्यक है। इन्हें समझने की आवश्यकता बतलाते हुए आचार्य कुन्थुसागरजी महाराज कहते हैं:
जो पुरुष मोहनीय कर्म की तीव्रता से बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा इन आत्मा के तीनों भेदों को नहीं जानता है वह पुरुष उन्मत्त (मतवाले) पुरुष के समान अत्यन्त निंदनीय कार्यों को किया करता है और संसार में मूर्ख कहलाता है। परन्तु जो पुरुष इन तीनों प्रकार के आत्मा के स्वरूप को जानता है वह पुरुष बहिरात्म-बुद्धि का त्याग कर देता है। अन्तरात्मा में निवास करता है और फिर वह उत्तम पुण्यवान् पुरुष अत्यन्त शुद्ध ऐसे परमात्मा को देखने का प्रयत्न करता है। ...अतएव प्रत्येक भव्य (मोक्षार्थी) जीव का कर्तव्य है कि वह बहिरात्म-बुद्धि का त्याग कर अन्तरात्मा बने तथा अन्तरात्मा बनकर परमात्मा बनने का प्रयत्न करे; क्योंकि परमात्मा ही आत्मा का सर्वोत्कृष्ट कल्याण है।'
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