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अन्तर्मुखी साधना
अति निबिड़ (सघन) है, सो ध्यानरूपी सूर्य उदय होकर जीवके उस अन्धकार को तत्काल दूर कर देता है।
संसाररूपी अग्नि से उत्पन्न हुए बड़े आतप (प्रचण्ड गर्मी) की प्रशान्ति के लिए धीरवीर पुरुषों के द्वारा ध्यानरूपी समुद्र में अवगाहन (स्नान) करने की ही प्रशंसा की जाती है।
यह प्रशस्त ध्यान ही मोक्ष का एक प्रधान कारण है, और यह ही पाप के समूहरूपी महाबन को दग्ध करने के लिए अग्नि के समान है। 107
आदिपुराण में ध्यान से प्राप्त होनेवाले फलों का उल्लेख इन शब्दों में किया गया है:
मोक्ष के साधनों में ध्यान ही सबसे उत्तम साधन माना गया है। यह कर्मों के क्षय करनेरूप कार्यका मुख्य साधन है। ऋषियों में श्रेष्ठ गणधरादि देव अनन्त सुखको ही ध्यान का फल कहते हैं। जिस प्रकार वायु से टकराये हुए मेघ शीघ्र ही विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार ध्यानरूपी वायु से टकराये हुए कर्मरूपी मेघ शीघ्र ही विलीन हो जाते हैं-नष्ट हो जाते हैं। इसलिए मोक्षाभिलाषी जीवोंको निरन्तर ध्यान का अभ्यास करने का ही प्रयत्न करना चाहिए। ध्यान करनेवाले योगी के चित्त के सन्तुष्ट होने से जो परम आनन्द होता है वही सबसे अधिक ऐश्वर्य है, फिर योग से होनेवाली अनेक ऋद्धियों का तो कहना ही क्या है? भावार्थ-ध्यान के प्रभाव से हृदय में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है वही ध्यान का सबसे उत्कृष्ट फल है और अनेक ऋद्धियों की प्राप्ति होना गौण फल है।108
वे मनुष्य सचमुच धन्य हैं जो अर्हत् देव या सच्चे सन्त सद्गुरु की शरण लेकर उनसे दीक्षा ग्रहण करते हैं, उनसे ध्यान के स्वरूप, उसकी विधि और उसके भेदों को भली-भाँति समझकर उसके अभ्यास में दृढ़ता से लग जाते हैं और इस प्रकार अपने जीवन को सफल बना लेते हैं।