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________________ 316 जैन धर्म: सार सन्देश से तीनों लोकों को भी चलायमान कर सकती है। इस आत्मा की शक्ति योगियों के भी अगोचर है, क्योंकि इससे अनन्त पदार्थों को देखने जानने की शक्ति प्रकट होती है। ध्यानी जिस समय विशुद्ध ध्यान के बलसे कर्मरूपी इन्धनों को भस्म कर देता है उस समय यह आत्मा ही स्वयं साक्षात् परमात्मा हो जाती है, यह निश्चय है। इस आत्मा के गुणों का समस्त समूह ध्यान से ही प्रकट होता है तथा ध्यान से ही अनादि काल की संचित की हुई कर्मसन्तति (कर्मों की परम्परा) नष्ट होती है। आत्मा की शक्तियाँ सब स्वाभाविक हैं। सो अनादिकाल से कर्मों के द्वारा ढकी हुई हैं। ध्यानादिक करने से प्रकट होती हैं। सब नई उत्पन्न हुई दीखती हैं। सो ज्ञानरूपी दीपक के प्रकाश होने पर प्रकट होती हैं। यह आत्मा तीन जगत् का भर्ता (स्वामी) है, समस्त पदार्थों का ज्ञाता है, अनन्तशक्तिवाला है, परन्तु अनादिकाल से अपने स्वरूप से च्युत होकर (गिरकर) अपने-आपको नहीं जानता है। यह आत्मा दर्शन ज्ञान नेत्रवाला है, परन्तु अज्ञानरूपी अन्धकार से व्याप्त हो रहा है। इस कारण जानता हुआ भी नहीं जानता और देखता हुआ भी कुछ नहीं देखता। समभाव ध्यान से निश्चल ठहरता है। जिस पुरुष का ध्यान निश्चल है उसका समभाव भी निश्चल है। ध्यान का आधार समभाव है और समभाव का आधार ध्यान है। समीचीन (उचित) प्रशस्त ध्यान से केवल साम्य ही स्थिर नहीं होता, किन्तु कर्म के समूह से मलिन यह यन्त्रवाहक (कर्मों के कारण यन्त्र की तरह चलनेवाला) जीव भी शुद्ध होता है, अर्थात् ध्यान से कर्मों का क्षय भी होता है। जिस समय संयमी साक्षात् समभाव को अवलंबन करता है उसी समय उसके कर्मसमूह का घात करनेवाला ध्यान होता है। भावार्थ-समता भावके विना ध्यान कर्मों का क्षय करने का कारण नहीं होता। अनादि कालके विभ्रम से उत्पन्न हआ रागादिक अन्धकार
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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