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आत्मा से परमात्मा
इसलिए मैं मन-वचन-काय से इन सर्व परपदार्थों को छोड़ता हूँ अर्थात् उनमें ममत्वभाव का परित्याग करता हूँ ।
शरीर की बाल-वृद्धादि दशाओं के होने पर तथा व्याधि और मृत्यु के आने पर ज्ञानी जीव कैसा विचार करता है- जब मैं अजर-अमर हूँ, तब मेरी मृत्यु नहीं हो सकती, फिर उसका भय क्यों हो ? जब मुझ चैतन्यमूर्ति के कोई व्याधि नहीं हो सकती, तब उसकी व्यथा मुझे क्यों हो ? वास्तव में मैं न बाल हूँ, न वृद्ध हूँ और न युवा हूँ। ये सब अवस्थाएँ तो पुद्गल (जड़ परमाणुओं) में होती है। फिर इन अवस्थाओं के परिवर्तन से मुझे रंचमात्र भी दुःखी नहीं होना चाहिए ।
शारीरिक विषय-भोगों की ओर दौड़नेवाली मनोवृत्ति या विषयाभिलाषा को दूर करने के या रोकने के लिए ज्ञानी जीव विचारता है— मोहवश मैंने पाँचों इन्द्रियों के विषयभूत रूप-रस- गन्ध- - स्पर्शात्मक सभी पुद्गल जब बार- बार भोग भोगकर छोड़े हैं, तब आज उच्छिष्ट ( जूठे ) भोजन के तुल्य उन्हीं पुद्गलों में मुझ ज्ञानी की अभिलाषा कैसी ?2
जब साधक अपने अन्तर में उठनेवाली राग-द्वेषादि लहरों को शान्त करने में सफल होता है तभी वह अन्तरात्मा का अनुभव कर पाता है । तब उसे समत्व-भाव की प्राप्ति हो जाती है और वह सबको समदृष्टि से देखने लगता है । इस अवस्था को जैनधर्मामृत में इसप्रकार व्यक्त किया गया है:
जिसका मनरूपी जल राग-द्वेष-काम- - क्रोध- -मान- माया लोभादिक तरंगों से चचंल नहीं होता वही पुरुष आत्मा के यथार्थ स्वरूप को देखता है अर्थात् अनुभव करता है । उस आत्मतत्त्व को इतर (दूसरा) जन अर्थात् राग-द्वेषादि कल्लोलों (लहरों) से आकुलित चित्तवाला मनुष्य नहीं देख सकता ।
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जिसे आत्म-दर्शन हो जाता है, वह अन्तरात्मा शत्रु और मित्र पर सम-भावी हो जाता है, उसके लिए मान और अपमान समान बन जाते हैं,