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अन्तर्मुखी साधना
अनाकुल और अनुद्विग्न बना रहता है । दूसरी ओर कुछ साधु, साधु होकर भी सदैव आसक्त, आकुल और उद्विग्न रहते हैं, अतः ध्यान का सम्बन्ध गृही जीवन या मुनि जीवन से न होकर चित्त की विशुद्धि से है । चित्त जितना विशुद्ध होगा ध्यान उतना ही स्थिर होगा। ̈
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इससे स्पष्ट है कि गृहस्थ भी अपने चित्त को विशुद्ध कर तथा मोहरहित या अनासक्त होकर मुनि के समान ही मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं । मोक्ष-प्राप्ति, के लिए साधु-संन्यासी का वेश धारण करना आवश्यक नहीं है। जैनधर्मामृत और रत्नकरण्ड श्रावकाचार में स्पष्ट रूप से मोहरहित गृहस्थ को मोहग्रस्त मुनि से श्रेष्ठ बताते हुए कहा गया है:
मोहरहित सम्यग्दृष्टि गृहस्थ मोक्षमार्ग पर स्थित है किन्तु मोहवान् मुनि मोक्षमार्ग पर स्थित नहीं है, क्योंकि मोही मुनि से निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ माना गया है।"
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इसी प्रकार किसी भी पारमार्थिक साधना के सम्बन्ध में जाति और कुल का विचार करना भी व्यर्थ है । जैनधर्मामृत का स्पष्ट कथन है:
नीच कुल में जन्मा हुआ चाण्डाल भी यदि सम्यग्दर्शन से युक्त है, तो श्रेष्ठ है - अतः पूज्य है । किन्तु उच्च कुल में जन्म लेकर भी जो मिथ्यात्व - युक्त हैं, वे श्रेष्ठ और आदरणीय नहीं हैं। 2
यहाँ यह भी याद रखना आवश्यक है कि अपनी ऊँची जाति, कुल, शारीरिक रंग-रूप, धन-सम्पत्ति, बल - बुद्धि या अन्य किसी भी प्रकार का अभिमान, ध्यान या धार्मिक साधना के लिए बाधक है। दूसरों को नीची निगाह से देखनेवाला और उनका अपमान करनेवाला स्वयं ही नीचे गिरता और अपमानित होता है, जैसा कि रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा गया है:
ज्ञान, पूजा (आदर, सत्कार), कुल, जाति, बल, धनसम्पत्ति, तपस्या और शरीर - इन आठों को लेकर गर्व करने को निरहंकार आचार्यों ने (आठ प्रकार का) मद कहा है। जो घमंडी व्यक्ति अपने घमंड में