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जैन धर्म : सार सन्देश पारमार्थिक साधना में पूर्ण सफलता प्राप्त कर ली थी। इसलिए गृहस्थ के लिए निश्चित रूप से ध्यान की साधना और परमार्थ की प्राप्ति को असम्भव घोषित करना उचित नहीं प्रतीत होता।
वास्तव में ध्यान में सफल होने के लिए राग, द्वेष और मोह से ऊपर उठकर अनासक्त या निर्लिप्त जीवन बिताने का प्रयास करना आवश्यक होता है और यह कार्य गृहस्थ और संन्यासी-दोनों के लिए कठिन अवश्य है, पर उचित साहस, पूर्ण विश्वास और दृढ़ अभ्यास द्वारा इस कठिनाई पर विजय पायी जा सकती है। दूसरे शब्दों में, दृढ़ संकल्प और अडिग अभ्यास द्वारा गृहस्थ और संन्यासी-दोनों ही ध्यान की साधना में सफल हो सकते हैं।
इसी विचार को प्रकट करते हुए सागरमल जैन कहते हैं:
अनेक सम्यक् दृष्टि गृहस्थ ऐसे होते हैं जो जल में कमलवत् गृहस्थ जीवन में अलिप्त भाव से रहते हैं। ऐसे व्यक्तियों के लिए धर्मध्यान की सम्भावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।89
अपने विचार को स्पष्ट करते हुए वे फिर कहते हैं:
व्यक्ति में मुनिवेश धारण करने मात्र से ध्यान की पात्रता नहीं आती है। प्रश्न यह नहीं है कि ध्यान गृहस्थ को सम्भव होगा या साधु को? वस्तुतः निर्लिप्त जीवन जीने वाला व्यक्ति चाहे वह साधु हो या गृहस्थ, उसके लिए धर्मध्यान सम्भव हो सकता है। दूसरी ओर आसक्त, दम्भी और साकांक्ष व्यक्ति, चाहे वह मुनि ही क्यों न हो, उसके लिए धर्मध्यान असम्भव होता है। ध्यान की सम्भावना साधु और गृहस्थ होने पर निर्भर नहीं करती। उसकी सम्भावना का आधार ही व्यक्ति के चित्त की निराकुलता या अनासक्ति है। जो चित्त अनासक्त और निराकुल है, फिर वह चित्त गृहस्थ का हो या मुनि का, इससे कोई । अन्तर नहीं पड़ता। ध्यान के अधिकारी बनने के लिए आवश्यक यह है कि व्यक्ति का मानस निराकांक्ष, अनाकल और अनद्विग्न रहे। यह अनुभूत सत्य है कि कोई व्यक्ति गृहस्थ जीवन में रहकर भी निराकांक्ष,