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अन्तर्मुखी साधना
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घर-बार को छोड़ जंगल या सुनसान जगहों में जाकर साधना करने का निर्णय लिया । फिर धीरे-धीरे घर-बार त्यागकर साधना करने की एक परम्परा बन गयी। इसी परम्परा के अनुसार महावीर और बुद्ध भी गृहत्याग कर सत्य की खोज में निकले और अपनी साधना में सफलता प्राप्तकर बहुतों को सत्य का मार्ग दिखलाया। ज्ञानार्णव में भी इसी परम्परा की ओर संकेत करते हुए कहा गया है:
गृहस्थगण घर में रहते हुए अपने चपल ( चंचल) मन को वश करने में असमर्थ होते हैं, अतएव चित्त की शान्ति के अर्थ सत्पुरुषों ने घर में रहना छोड़ दिया है और वे एकान्त स्थान में रहकर ध्यानस्थ होने को उद्यमी हुए हैं। 7
इससे यह पता चलता है कि गृहस्थ जीवन में ध्यान करना कठिन माना गया है। पर गृहस्थ-जीवन को त्यागकर जंगल या सुनसान जगह में रहना भी तो कोई कम कठिन काम नहीं है । शरीर के पालन-पोषण, आवास, चिकित्सा आदि के लिए जंगल का एकान्त जीवन आसान कैसे हो सकता है ? फिर अपने मन को पूरे समय चिन्तामुक्त रखकर ध्यान में लगाये रखने का काम भी कोई विरला ही कर सकता है । इस प्रकार साधक चाहे गृहस्थ हो या संन्यासी - कठिनाइयों का सामना दोनों ही प्रकार के साधकों को करना पड़ता है । कोई भी महान कार्य कठिनाइयों का सामना किये बिना सम्भव नहीं है । परमार्थ की प्राप्ति करना निश्चय ही बहादुरों का काम है, कायरों का नहीं । इसलिए यह मानना कि केवल मुनिजन या साधु-संन्यासी ही ध्यान कर सकते हैं और गृहस्थ के लिए ध्यान करना असम्भव है (जैसा कि शुभचन्द्राचार्य मानते हैं), 88 युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता।
यदि एक ओर बुद्ध और महावीर जैसे परमार्थ की प्राप्ति करनेवाले गृहत्यागियों के उदाहरण हैं तो दूसरी ओर बुद्ध के ही प्रसिद्ध गृहस्थ शिष्य विमलकीर्ति (जिनकी महिमा और तेजस्विता से बुद्ध के प्रधान भिक्षु शिष्य सारिपुत्र, आनन्द आदि प्रभावित थे) और राजा जनक के उदाहरण हैं, जिनके विषय में कहा जाता है कि इन्होंने गृहस्थ जीवन में रहते हुए ही अपनी