________________
306
जैन धर्म: सार सन्देश ध्यान को क्यों करे? दूसरे संसार से विरक्त (अनासक्त) हो, क्योंकि संसार से विरक्त (अनासक्त) हुए बिना ध्यान में चित्त किस लिए लगावे? तीसरे क्षोभरहित शान्तचित्त हो, क्योंकि व्याकुलचित्त के ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती। चौथे वशी कहिये जिसका मन अपने वश में हो, क्योंकि मन के वश हुए विना वह ध्यान में कैसे लगै? पाँचवें स्थिर हो, शरीर के सांगोपांग आसन में दृढ़ हो, क्योंकि काय चलायमान रहने से ध्यान की सिद्धि नहीं होती। छठे जिताक्ष (जितेन्द्रिय) हो, क्योंकि इन्द्रियों के जीते विना वे विषयों में प्रवृत्त करती हैं और ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती। सातवें संवृत कहिये संवरयुक्त हो। क्योंकि खानपानादि में विकल हो जावे तो, ध्यान में चित्त कैसे स्थिर हो? आठवें धीर हो। उपसर्ग (विघ्न) आने पर ध्यान से च्युत न होवे। तब ध्यान की सिद्धि होती है। ऐसे आठगुणसहित ध्याता के ध्यान की सिद्धि हो सकती है, अन्य के नहीं होती।
ज्ञानार्णव में फिर कहा गया है:
जिस मुनि (साधक) का चित्त काम भोगों में विरक्त होकर और शरीर में स्पृहाको छोड़ के स्थिरीभूत हुआ है, निश्चय करके उसी को ध्याता कहा है। वही प्रशंसनीय ध्याता है।86
मोक्ष की चाह रखनेवाले ध्याता को उपर्युक्त गुणों को अपने अन्दर बसाने का भरपूर प्रयत्न करना चाहिए। __यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि ध्यान करने का अधिकार केवल साधु या मुनि को ही है या गृहस्थ भी ध्यान कर सकते हैं। कुछ लोगों की यह धारणा है कि ध्यान केवल गृहत्यागी साधु-संन्यासी या मुनि ही कर सकते हैं। गृहस्थ ध्यान की साधना नहीं कर सकते।
यह ठीक है कि गृहस्थ अक्सर अनेक प्रकार के गृहकार्यों में उलझे रहते हैं। इसलिए उन्हें ध्यान के लिए अधिक समय निकालने में कठिनाई होती है। इस कठिनाई से बचने के लिए प्राचीन काल में कुछ उत्साही मनुष्यों ने