SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्तर्मुखी साधना 305 मन, वचन, काय, मत्सर, ममत्व, शरीर, धन-धान्य आदि से मैं शून्य हूँ इस प्रकार के शून्य ध्यान से युक्त योगी पुण्य-पाप से लिप्त नहीं होता। मैं शुद्धात्मा हूँ, ज्ञानी हूँ, चेतन गुण स्वरूप हूँ, एक हूँ, इस प्रकार के ध्यान से योगी परमात्म स्थान को प्राप्त करता है। अभ्यन्तर को निश्चित करके तथा बाह्य पदार्थों सम्बन्धी सुखों व शरीर को शून्य करके हंस रूप पुरुष अर्थात् अत्यन्त निर्मल आत्मा केवली हो जाता है।83 आचार सार में शून्य ध्यान में लीन ध्यानी की अवस्था की ओर संकेत करते हुए कहा गया है: सब रस विरस हो जाते हैं, कथा गोष्ठी व कौतुक विघट (हट) जाते . हैं, इन्द्रियों के विषय मुरझा जाते हैं, तथा शरीर में प्रीति भी समाप्त . हो जाती है। जहाँ न ध्यान है, न ध्येय है, न ध्याता है न कुछ चिंतवन . है, न धारणा के विकल्प हैं, ऐसे शून्य को भली प्रकार भाना (रमना). चाहिए। शून्य ध्यान में प्रविष्ट योगी स्व स्वभाव से सम्पन्न, परमानन्द में स्थित तथा प्रकट भरितावस्थावत् (परिपूर्णावस्था जैसा) होता है। ध्यान युक्त योगी को जब तक कुछ भी विकल्प उत्पन्न होते रहते हैं, तब तक वह शून्य ध्यान नहीं, वह या तो चिन्ता है या भावना।84 ध्याता के आवश्यक गुण ध्यान के भेदों पर विचार करने और ध्यान के अन्तिम लक्ष्य को समझने के बाद हमें यह भी जानना चाहिए कि ध्यान के इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ध्याता को कैसा होना चाहिए। यदि साधक यह जान ले कि ध्यान के अभ्यास में सफल होने के लिए किन गुणों से युक्त होना आवश्यक है तो वह उन गुणों को ग्रहण करने के लिए भरपूर प्रयास कर सकता है। ध्याता के लिए जो गुण आवश्यक हैं उनका स्पष्ट उल्लेख ज्ञानार्णव में इस प्रकार किया गया है: शास्त्र में ऐसे ध्याता की प्रशंसा की गई है जो मुमुक्षु हो, अर्थात् मोक्ष की इच्छा रखनेवाला हो। क्योंकि यदि ऐसा नहीं हो, तो मोक्ष के कारण
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy